नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए साफ कर दिया कि राज्यपाल किसी भी बिल को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते और राष्ट्रपति को भी तीन महीने के भीतर उस बिल पर निर्णय लेना होगा जिसे राज्यपाल ने उनके पास विचार के लिए भेजा है। यह फैसला तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने और मंजूरी में देरी करने के मामले में आया है।
तमिलनाडु सरकार ने आरोप लगाया था कि राज्यपाल ने 12 विधेयकों को मंजूरी नहीं दी, जिनमें से एक 2020 से लंबित था। 13 नवंबर 2023 को राज्यपाल ने 10 विधेयकों को खारिज कर दिया, जिसके बाद 18 नवंबर को विधानसभा ने उन्हीं विधेयकों को दोबारा पास किया। इसके बाद राज्यपाल ने दोबारा इन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया।
जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की पीठ ने कहा कि राज्यपाल द्वारा दूसरी बार बिलों को राष्ट्रपति के पास भेजना गैरकानूनी और असंवैधानिक है। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 का हवाला देते हुए कहा कि:
राज्यपाल को विधानसभा से आए बिल पर एक महीने के भीतर कोई न कोई फैसला लेना होगा।
यदि राज्यपाल राष्ट्रपति के पास बिल भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर फैसला लेना होगा।
यदि किसी वजह से देरी होती है तो कारण बताना अनिवार्य होगा और राज्य सरकार को इसकी सूचना देनी होगी।
यदि राज्यपाल सरकार की सलाह के खिलाफ कोई कदम उठाते हैं, तो वे बिल को अधिकतम तीन महीने के भीतर लौटा सकते हैं।
यदि विधानसभा फिर से बिल पास करती है, तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर मंजूरी देनी होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि भारत के राष्ट्रपति के पास ‘पॉकेट वीटो’ (जहां वे बिल को अनिश्चितकाल तक बिना कोई फैसला किए रोके रखें) या ‘एब्सोल्यूट वीटो’ (बिल को स्थायी रूप से खारिज कर देना) जैसी कोई शक्ति नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 201 के अनुसार, राष्ट्रपति को स्पष्ट रूप से या तो बिल को मंजूरी देनी होगी या उसे अस्वीकृत करना होगा।
अनुच्छेद 142 का प्रयोग
सुप्रीम कोर्ट ने अपने विशेष अधिकार अनुच्छेद 142 का प्रयोग करते हुए यह घोषणा की कि तमिलनाडु सरकार द्वारा दोबारा पास किए गए 10 विधेयकों को माना जाएगा कि राज्यपाल ने उसी दिन मंजूरी दे दी थी जिस दिन वे उन्हें दोबारा भेजे गए थे।
आगे का रास्ता
यह फैसला सिर्फ तमिलनाडु के लिए ही नहीं बल्कि देशभर के राज्यों के लिए एक मिसाल बन गया है। सुप्रीम कोर्ट ने सभी हाईकोर्ट्स और राज्यों के राज्यपालों को इस फैसले की कॉपी भेजने का निर्देश दिया है ताकि विधायी प्रक्रिया को अनावश्यक रूप से रोका न जा सके।यह फैसला राज्य सरकारों की विधायी स्वतंत्रता और संघीय ढांचे को मजबूती देने वाला कदम माना जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट का यह सख्त रुख बताता है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को संविधान के दायरे में रहकर ही काम करना होगा।
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