Meditation : मन, मस्तिष्क और शरीर तीनों के लिए जरूरी है ध्यान

आज हम महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग के सातवे अंग की विस्तार से चर्चा करेगे। योग का सातवां अंग ध्यान (Meditation) है। ध्यान का अर्थ है अपना पूरा ध्यान किसी चीज पर लगाना और हटने नहीं देना।

Written By : मृदुला दुबे | Updated on: June 8, 2024 7:05 am

ध्यान क्या है और उसे कैसे करें

ध्यान संबंधी जिज्ञासा सबके मन में आती है। सबसे पहले तो हम यह देखें कि हमारा मन हमारे वश में है, शांत, संतुष्ट और तृप्त है। मन कहीं भी चिपका हुआ या फंसा हुआ तो नहीं है। बहुत बोलने वाला मन है ? झूठ बोलना, चिढ़ जाना, कड़वा बोलना आदि से मैं दूसरों को दुख तो नहीं देता ? यदि ये हम पर हावी हैं तो आज और अभी आंखें बंद कर एकांत में बैठेंगे ।बहुत आसान है, बैठना। बैठकर पहले शांत हो जाओ ।अब बिना हिले – डुले बैठने का प्रयास करो। बैठना ही बड़ा आनंद देने वाला है । अब अपने आ रहे और जा रहे विचारों को देखो। केवल देखो ! जो आ रहे हैं उन्हें आने दो और जो जा रहे हैं उन्हें जाने दो। तुम देखोगे की बच्चों के ,रिश्तेदार के ,जॉब के ,किचन के और बाजार के विचार ज्यादा आएंगे। सारे भूले काम आपको अभी याद आ जाएंगे और हम सोचेंगे कि उठकर पहले यह काम निपटा लें लेकिन उठना नहीं है और ना ही आंखें खोलनी हैं। केवल देखना है ,करना कुछ नहीं है ।कुछ ना करना ही ध्यान है।

कुदरत का खेल

मनुष्य के भीतर पांच इंद्रियां ,पांच तत्व,संस्कार और एक चित्त है। अपने व्यक्तित्व और सोच के अनुसार व्यवहार कर रहा है। यह भी कुदरत का ही एक अंग है। कुदरत से बाहर कुछ भी नहीं है। सब कुदरत के इशारे पर नाच रहे हैं लेकिन ध्यान करने से दृष्टि बदल जाती है। देखने का नजरिया बदल जाता है, फिर हम व्यक्ति को न देखकर कुदरत को देखते हैं तो उसे ऐसे लगता है जैसे सब नाच रहे हैं और उसे यह अनुभव होता है कि मुझे भी कुदरत से बनी वृत्तियों ने खूब नचाया और जब नाचते -नाचते हम थक गए तब ध्यान में बैठकर विश्राम किया। मन को विश्राम मिलने से वर्तमान में बैठकर आनंद का अनुभव होता है। ध्यान करने से कृतज्ञता, क्षमा , सजगता और शांति से मन महकने लगता है। मन की सुंदरता क्षमा ,सहयोग और प्रेम से है। यथाभूत और यथावत देखने आ जाता है ।अब यथावांछित , यथाकल्पित ,यथा आरोपित से कोसों दूर रहते हैं और आसमान में चमकते सितारे की तरह से हमारी छाया सदा जीवंत रहती है फिर हमे नीचे कोई नहीं ला सकता क्योंकि हम खुद पर काम कर रहे होते हैं। किसी को भी दोष न देते हुए किसी भी अति में नहीं जाते और कृतज्ञता का भाव रखते हैं ।

ध्यान का अभ्यास करने के लिए हमें अपने मन को ,विचारों को, और शरीर पर होने वाली संवेदना को समझना बहुत जरूरी है। इस शरीर के विज्ञान को समझे बिना हम अपने शरीर से जुड़ी संवेदनाओं को कैसे समझेंगे। शरीर अणुओ से बना है और इस एक-एक अणु को भेदना है क्योंकि ये अणु ही स्थूल होने के कारण हमें बंधन में बांधे हैं। इन अणुओं का पिघलना ध्यान से संभव है । ध्यान साधना के अभ्यास से अनुभव और समझ मिलती है। मन के विकारों के रहते थोड़ी सी भी मुक्ति संभव नहीं है। जहां कहने को कुछ ना बचे वो आनंद है। कृत्रिम आनंद से प्रभावित न रहो ।आनंद एक अद्भुत अनुभव है, जो भीतर से पैदा होता है। कल क्या होगा यह केवल कुदरत जानती है।

ध्यान से होगी आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति

निरंतर ध्यान का अभ्यास करते रहने से आत्म साक्षात्कार की प्राप्ति हो जाती है।आत्म साक्षात्कार का अर्थ है अपने को अच्छी तरह से जान लेना – जैसे कि मुझे अचानक से क्रोध क्यों आ जाता है, मैं क्यों चिड़चिड़ा हो जाता हूं ,मुझे झूठ बोलना क्यों अच्छा लगता है, मैं कौन हूं ,मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है ,मैं पृथ्वी पर व्यर्थ ही क्यों भटक रहा हूं ,आज तक मैने दूसरों का कितना भला किया। क्या मैं अपने बच्चे जितना दूसरे के बच्चे को प्यार कर सकता हूं। मैं दूसरे के दुख से दुखी क्यों नहीं होता मुझे सिर्फ अपनी और अपने परिवार की ही फिक्र क्यों होती है। मैं पूरी धरती को अपना क्यों नहीं कह पाता। मेरा मन मेरे ही वश में क्यों नहीं है ,क्यों मैं डरा डरा सा रहता हूं।

जब ध्यान की प्राप्ति हो जाती है तो मनुष्य कैसा अनुभव करता है?

जब कोई व्यक्ति ध्यान करता है तब निरंतर अभ्यास से उसके शरीर और मन की स्थूलता कम होने लगती है और सूक्ष्मता बढ़ने लगती है, जिससे वह बहुत हल्का होकर कुदरत के नियमों को समझता है। तब मनुष्य के भीतर का अग्नि तत्त्व समता में आ जाता है और वह भूत प्रेत आदि की बातें नहीं करता।  उसका मन शांत होकर समता में रहता हुआ स्वार्थ रहित प्रेम से भर उठता है ।निरंतर अभ्यास से प्रकृति के भेद खुलने लगते हैं अब ऐसा साधक स्वयं को खूब जानता है और बेहोशी में कोई काम नहीं करता ।वह पूरे ब्रह्मांड को देखता है और उसमें खुद को आत्मसात करता हुआ, पृथ्वी और आकाश की सैर करता हुआ सबके मन में प्रवेश कर जाता है और देखता है कि कहीं कोई भेद नहीं है। अपने दोषों को जानता हुआ उन्हें जड़ से काट सकता है क्योंकि सब अनित्य है। सारा ज्ञान उसके अनुभव में आता है तब वह कहीं भी नहीं उलझता। वह अपनी मृत्यु को स्वीकार कर उसके स्वागत की तैयारी में जुट जाता है ।आकाश से ऊपर जाने के लिए अपनी अटैची में दया , क्षमा,सेवा और प्रेम को भर लेता है। अपने शरीर और मन को भेदता हुआ खूब आनंदित होता है और सांसारिक मोह माया से बंधे हुए मनुष्यो को बहुत ही आश्चर्य से देखता है।

ध्यान की विधियां

ध्यान स्वयं की यात्रा है ।बहुत से बुद्ध पुरुषों ने अपने-अपने ढंग से ध्यान की विधियां खोजकर बताई हैं। तथागत बुद्ध की खोज आनापानसती अर्थात विपश्यना एक सर्वोत्तम विधि है जिसमें आती जाती श्वांस के प्रति सजग रहना होता है । श्वांस जैसी भी आ रही है ,जा रही है ,हल्की है ,भारी है ,तेज चल रही है या धीरे चल रही है । सजग होकर वर्तमान क्षण में रहते हुए अपनी श्वास को देखते रहना है और अनापान सती अभ्यास के बाद शरीर के सिर से लेकर पैर तक और पैर से लेकर सिर तक एक-एक अंग को बहुत ही सजगता के साथ देखते हैं ।जो चीज जैसी है उसको वैसा ही देखने को विपश्यना कहते हैं।

महर्षि महेश योगी ट्रांसजेंडर मेडिटेशन आंदोलन के संस्थापक रहे और उन्होंने ध्यान की एक विधि को जन्म दिया। ये विधि सन 1960 से 70 तक बहुत प्रसिद्ध हुई।

सभी धर्मों में है ध्यान का जिक्र

सूफी प्रथा में भी ध्यान को सम्मिलित किया गया है ।ध्यान प्रथाओं का जिक्र सबसे पहले भारत के प्राचीन ग्रंथ वेदों में मिलता है । ध्यान एक योग क्रिया है, विद्या है ,तकनीक है ,आत्म अनुशासन की एक युक्ति है जिससे मानसिक संतुलन और सहनशक्ति बढ़ती है।

हिंदू धर्म में भगवान शिव ध्यान का प्रतीक हैं। शिव जी ने ध्यान की 112 विधियां पार्वती जी को बताईं । शिव को हम सदैव ध्यान में देखते हैं । तथागत बुद्ध ने दुख मुक्ति और आवागमन मुक्ति हेतु विपश्यना विधि दी जिससे अनेकों को निर्वाण मिला। बुद्ध ने विपश्यना के अभ्यास से महापरिनिर्वाण को प्राप्त किया। जैन धर्म में भी ध्यान करते हैं।

सभी 24 तीर्थंकरों ने गहन ध्यान का अभ्यास किया । महावीर जी ने 12 वर्ष गहन ध्यान का अभ्यास किया। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के आचार्य भद्रबाहु ने 12 वर्षों तक गहन महाप्राण ध्यान का अभ्यास किया । जैन अपनी साधना में ध्यान को शामिल करते हैं जो शांति और मौन में 48 मिनट तक किया जाता है । ध्यान जीवन जीने की कला है। भगवान महावीर ने कहा कि मनुष्य का मूल धर्म ध्यान है इसी प्रकार बुद्ध ने कहा कि मेरा मार्ग ध्यान अभ्यास का मार्ग है।

ध्यान मानसिक और शारीरिक दोनों ही स्वास्थ्य के लिए है महत्वपूर्ण

ध्यान के नियमित अभ्यास से निम्न रक्तचाप, पुराने दर्द में कमी आती है। नींद में सुधार होता है और प्रतिरक्षा प्रणाली की कार्य क्षमता में वृद्धि देखी गई है । चिंता और अवसाद में भी कमी देखी गई है। मंत्र ध्यान ,चक्र ध्यान और माइंडफुलनेस आदि विभिन्न ध्यान प्रथाओं को शामिल किया गया है।

ज्यादातर देखने को मिलता है कि मनुष्य जीने की कला जानते ही नहीं बस जीते   चले जा रहे हैं और यहां से जाने की कोई तैयारी नहीं करते । खुद भी बिना कारण दुखी होते हैं और आसपास के सब लोगों को भी दुखी बनाते हैं। हर जगह कलह है । लोभ सर चढ़कर बोलता है और तृष्णा से मन बड़ा अस्थिर रहता है। कथा, कीर्तन ,आरती आदि से भी क्षण भर को ही शांत होते हैं इसलिए ध्यान करना बहुत आवश्यक है।

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