भरत का जन्म अयोध्या के सूर्यवंशी राजा दशरथ और रानी कैकेयी के पुत्र के रूप में हुआ था। वे चारों भाइयों में से सबसे अधिक धर्मनिष्ठ, आज्ञाकारी और माता-पिता के प्रति श्रद्धालु थे। उनका बचपन श्रीराम, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के साथ प्रेमपूर्वक बीता।
गुरुकुल में उन्होंने वेद, शास्त्र, राजनीति, धर्मशास्त्र और धनुर्विद्या की शिक्षा प्राप्त की। वे एक योग्य, निपुण और पराक्रमी योद्धा थे, लेकिन उनके हृदय में स्नेह, विनम्रता और त्याग की भावना सर्वोपरि थी। विशेष रूप से श्रीराम के प्रति उनकी गहरी भक्ति थी, और वे उन्हें अपने जीवन का आदर्श मानते थे।
भरत का त्याग और धर्मनिष्ठा:
भरत के चरित्र की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता उनका त्याग और धर्मनिष्ठा है। जब माता कैकेयी ने राजा दशरथ से दो वरदान मांगे—पहला, भरत को अयोध्या का राज्य मिले और दूसरा, श्रीराम को 14 वर्षों के लिए वनवास जाना पड़े—तब भरत ननिहाल में थे।
जब वे अयोध्या लौटे और इस घटना के बारे में सुना, तो उन्हें गहरा दुःख हुआ। उन्होंने न केवल अपने पिता की मृत्यु का शोक मनाया, बल्कि अपनी माता कैकेयी पर भी क्रोध किया और उन्हें कठोर शब्दों में यह समझाया कि उन्होंने कितना बड़ा अन्याय किया है।
भरत ने अयोध्या का राज्य स्वीकार करने से स्पष्ट मना कर दिया और तुरंत अपने भाई श्रीराम को मनाने के लिए चित्रकूट की ओर प्रस्थान किया। उन्होंने श्रीराम से आग्रह किया कि वे अयोध्या लौटकर राज्य संभालें, परंतु जब श्रीराम ने पितृ आज्ञा का पालन करने का निर्णय लिया, तब भरत ने उनके चरण पादुका (खड़ाऊँ) को अयोध्या के सिंहासन पर स्थापित किया और स्वयं तपस्वी की भांति नंदिग्राम में रहकर राज्य संचालन किया।
इस प्रकार, भरत ने त्याग की चरम सीमा को दर्शाया और यह सिद्ध किया कि उनके लिए सत्ता का कोई मोह नहीं था, बल्कि वे केवल धर्म और कर्तव्य के प्रति समर्पित थे।
भरत की भक्ति और भ्रातृप्रेम:
भरत का अपने बड़े भाई श्रीराम के प्रति अटूट प्रेम और भक्ति उनके चरित्र का सबसे उज्ज्वल पक्ष है। वे न केवल श्रीराम के प्रति समर्पित थे, बल्कि अपने जीवन के हर निर्णय को उनके आदेश और धर्म के अनुसार लिया।
भरत ने स्वयं को हमेशा श्रीराम का सेवक माना। उन्होंने अपने राज्यकाल में राजसी सुखों का त्याग कर कठोर तपस्या और ब्रह्मचर्य का पालन किया। वे कभी भी राजमहल में नहीं रहे, बल्कि नंदिग्राम में एक साधु के समान रहे। वे केवल श्रीराम के पादुका को अयोध्या के सिंहासन पर रखकर प्रतीकात्मक रूप से शासन करते रहे और स्वयं को श्रीराम का प्रतिनिधि मानते रहे।
यह उनकी अपार भक्ति और भ्रातृप्रेम का अनुपम उदाहरण है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि सच्चा प्रेम स्वार्थ और लोभ से परे होता है।
कर्तव्यनिष्ठ और न्यायप्रिय राजा:
भरत केवल एक भक्त और त्यागी नहीं थे, बल्कि वे एक कुशल, न्यायप्रिय और धर्मपरायण शासक भी थे। उन्होंने श्रीराम के आदर्शों के अनुसार राज्य संचालन किया और अपने शासनकाल में “रामराज्य” जैसी व्यवस्था स्थापित की।
उनका प्रशासन प्रजा के कल्याण पर केंद्रित था। वे हमेशा न्याय और सत्य का पालन करते थे तथा प्रजा के सुख-दुःख में सहभागी रहते थे। उनका राज्यकाल उदाहरण प्रस्तुत करता है कि एक राजा को केवल सत्ता प्राप्त करने की लालसा नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसका उद्देश्य प्रजा की सेवा करना होना चाहिए।
भरत का आदर्श चरित्र:
भरत का चरित्र निःस्वार्थता, त्याग और धर्मपरायणता का अनुपम उदाहरण है। वे न तो सत्ता के लोभी थे, न ही स्वार्थी। उनके मन में अपने भाई श्रीराम के प्रति कभी ईर्ष्या या द्वेष का लेशमात्र भी नहीं था।
रामायण में ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं जहाँ किसी पात्र ने स्वयं राजा बनने का अवसर ठुकरा दिया हो और अपने भाई के सम्मान की रक्षा के लिए संपूर्ण निष्ठा और तपस्या के साथ राज्य संचालन किया हो।
भरत का चरित्र यह संदेश देता है कि सच्चा प्रेम और सच्ची भक्ति त्याग और सेवा में निहित होती है, न कि अधिकार और लोभ में। उनका संपूर्ण जीवन कर्तव्य, मर्यादा और स्नेह का अद्वितीय उदाहरण है।
उनका चरित्र हमें यह सिखाता है कि सच्ची भक्ति केवल शब्दों में नहीं, बल्कि कर्मों में प्रकट होती है। उनके जीवन से हमें निष्ठा, कर्तव्यपरायणता, सेवा और त्याग के मूल्यों को अपनाने की प्रेरणा मिलती है। भरत का त्याग, उनकी भक्ति और उनका धैर्य हर युग में आदर्श रहेगा और आने वाली पीढ़ियों को सही मार्ग दिखाता रहेगा।
(मृदुला दुबे योग शिक्षक एवं आध्यत्मिक विचारक हैं।)
ये भी पढ़ें:-अध्यात्म : ईश्वर वही प्राकृतिक सत्य है जो इस सृष्टि को चला रहा