परंपरा से प्रगति तक: मॉस्को सम्मेलन में नए भारत की गूंज

क्या कोई देश अपनी जड़ों को छोड़े बिना भविष्य की ओर बढ़ सकता है? यही सवाल मॉस्को में 1-2 अप्रैल को आयोजित “जनसांख्यिकी: परंपराएँ और औद्योगीकरण” अंतरराष्ट्रीय मंच का केंद्र बिंदु बना।

Written By : डेस्क | Updated on: April 5, 2025 10:37 pm

मॉस्को : दुनिया भर से आए विचारकों, नेताओं और विशेषज्ञों ने मॉस्को सम्मेलन में इस बात पर मंथन किया कि कैसे सांस्कृतिक पहचान, औद्योगिक विकास और जनसंख्या परिवर्तन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। भारत की ओर से इस वैश्विक मंच पर डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने प्रभावशाली संबोधन दिया। “नई औद्योगीकरण और जनसंख्या वृद्धि” विषय पर बोलते हुए उन्होंने भारत की उस विशेष दृष्टि को प्रस्तुत किया, जिसमें परंपरा और प्रगति एक साथ चलते हैं।

उन्होंने कहा, “परंपराएं बंधन नहीं हैं, वे पंख हैं, जो हमें एक ऐसे भविष्य की ओर ले जाती हैं, जो हमारी जड़ों से जुड़ा है।” उन्होंने यह स्पष्ट किया कि कैसे भारत ने अपनी सांस्कृतिक चेतना और शिक्षा के सहारे अपने जनसांख्यिकीय लाभ को सकारात्मक दिशा दी है।

मॉस्को सम्मेलन के इस मंच पर कई अंतरराष्ट्रीय हस्तियों ने भी विचार साझा किए—जैसे रूसी अर्थशास्त्री सर्गेई ग्लाज़येव, दार्शनिक अलेक्जेंडर दुगिन, रंगमंच निर्देशक एदुआर्द बोयाकोव, भारत के सेवानिवृत्त मेजर जनरल बाल कृष्ण शर्मा और सांस्कृतिक हस्ती मारिया शुक्षिना। इन सबकी उपस्थिति ने विमर्श को विविध आयाम दिए और इस साझा लक्ष्य को बल दिया कि वैश्विक चुनौतियों का हल केवल आर्थिक नहीं, सांस्कृतिक समझ और सहयोग से भी संभव है।

सत्रों के दौरान यह साफ हो गया कि आज की दुनिया परंपरा और आधुनिकता के टकराव से नहीं जूझ रही, बल्कि उसे इन्हें साथ लेकर चलने का विकल्प चुनना है। इस संदर्भ में डॉ. जोशी की बातों ने एक गहरी छाप छोड़ी। उन्होंने कहा, “भविष्य उसी का है, जो अपनी जड़ों से ताकत लेकर समय के साथ चलना जानता है।”

सम्मेलन का समापन इस विचार के साथ हुआ कि वैश्विक सहयोग केवल तकनीकी या व्यापारिक स्तर पर नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और मानवीय स्तर पर भी आवश्यक है। तेज़ी से बदलती दुनिया में यह और स्पष्ट हो गया है कि जो प्रगति अपनी जड़ों को भूल जाती है, वह दिशा भी खो देती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *