ये बातें सोमवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आज से आरंभ हुए एकल-काव्य-पाठ की ऋंखला ‘मैं और मेरी कविता’ के उद्घाटन-अंक और जयंती-समारोह की अध्यक्षता करते हुए सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। समारोह का उद्घाटन पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति मांधाता सिंह ने किया। न्यायमूर्ति सिंह ने आज के कवि आचार्य विजय गुंजन तथा कवि-पत्रकार बिंदेश्वर प्रसाद गुप्ता को उनके ७०वें जन्म-दिवस पर अंग-वस्त्रम पहनाकर अभिनन्दन भी किया।
आज एक साथ हिन्दी के चार मनीषी विद्वानों, अखिल भारत वर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संस्थापक प्रधानमंत्री राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन, राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त, मुक्तछंद के प्रथम कवि और बिहार आंदोलन के प्रणेता बाबू महेश नारायण तथा स्तुत्य हिन्दी-प्रचारक बाबू गंगाशरण सिंह की जयंती मनायी गयी और उनके महान अवदानों को स्मरण करते हुए, श्रद्धांजलि दी गयी।
टण्डन जी को स्मरण करते हुए डा सुलभ ने कहा कि भारत की स्वतंत्रता का संग्राम लड़ने वाले बलिदानी तपस्वियों की पीढ़ी के पुरोधा संत थे टण्डन जी। राष्ट्र और राष्ट्रभाषा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले इस ऋषि-तुल्य मनीषी ने हिन्दी के लिए नेहरू से भी लड़ने में संकोच नही किया। भारत की संघीय सरकार की भाषा ‘हिन्दी’ और लिपि ‘देवनागरी’ हो, इस हेतु टण्डन जी ने अपनी सारी शक्तियाँ लगाई। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में उनका अतुल्य योगदान रहा है।
उन्होंने कहा कि भारत के मानचित्र पर ‘बिहार’ का नाम भी अंकित हो, इस हेतु महा-संग्राम का प्रथम शंख-नाद करने वाले बाबू महेश नारायण’बिहारी-अस्मिता’ के जागरण के प्रतीक ही नहीं, एक महान सांस्कृतिक-योद्धा, बड़े पत्रकार और हिन्दी-साहित्य में मुक्त-छंद के प्रथम कवि भी थे। महाप्राण निराला की ‘जूही की कली’ के प्रकाशन के तीन दशक पूर्व महेश बाबू की काव्य रचना ‘स्वप्न-भंग’ प्रकाशित हो चुकी थी।
अतिथियों का स्वागत करते हुए सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने कहा कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा ‘राष्ट्र-कवि’ की उपाधि से विभूषित और भारत सरकार के पद्म-भूषण सम्मान से अलंकृत कवि मैथिलीशरण गुप्त खड़ी बोली हिन्दी के प्रथम महाकवि हैं। आधुनिक हिन्दी का रूप गढ़ने में देश के जिन महान कवियों ने अपना महनीय योगदान दिया, उनमे गुप्त जी का स्थान अग्र-पांक्तेय है। गुप्त जी नव विकसित खड़ी बोली का नाम ‘हिन्दी’ के स्थान पर ‘भारती’ रखने के पक्षधर थे। उनका मानना था कि, क्योंकि यह ‘भारत’ की भाषा है इसलिए इसका नाम ‘भारती’ ही होना चाहिए। उन्होंने कहा कि साहित्य सम्मेलन की स्थापना के काल से ही बिहार के गौरव-पुरुष देश रत्न डा राजेंद्र प्रसाद और बाबू गंगा शरण सिंह हिन्दी-प्रचार के आंदोलन से जुड़ गए थे। सम्मेलन के हिन्दी प्रचारक के रूप में इन दोनों महापुरुषों ने पूरी श्रद्धा और भक्ति से दक्षिण-भारत और बंगाल समेत अनेक अहिन्दी-भाषी क्षेत्रों में भाषा और लिपि के प्रचार में अमूल्य कार्य किए।
आचार्य गुंजन द्वारा पढ़ी गयी कविताओं पर राँची विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डा जंग बहादुर पाण्डेय ने त्वरित समीक्षा प्रस्तुत की। वरिष्ठ कवि डा रत्नेश्वर सिंह, सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा मधु वर्मा, वरिष्ठ कवयित्री आराधना प्रसाद, चंदा मिश्र आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए। जन्म-दिवस पर अभिनन्दित कवि बिंदेश्वर गुप्ता ने भी अपनी रचनाओं का पाठ किया। मंच का संचालन कवयित्री अभिलाषा कुमारी ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।
इस अवसर पर कवि अर्जुन प्रसाद सिंह, इंदु भूषण सहाय, प्रवीर कुमार पंकज, अश्विनी कविराज, गीता गुप्ता, मोहिनी प्रिया, सोहिनी प्रिया,शोभाकांत झा, सच्चिदानन्द शर्मा, डा प्रेम प्रकाश,प्रमोद आर्य,विवेक कुमार,गौरव अभिषेक, सूरज कुमार, नन्दन कुमार मीत, कुमारी मेनका, डौली कुमारी आदि प्रबुद्धजन उपस्थित थे।
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