सुशीला कार्की की शिक्षाबद्ध पृष्ठभूमि में भारत (India) का असर साफ़ दिखता है — उन्होंने 1975 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) से राजनीति शास्त्र में मास्टर किया और बाद में त्रिभुवन विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई पूरी की। इन शैक्षिक-रिश्तों को दिल्ली (Delhi) में ‘साझेदारी और भरोसे’ का संकेत माना जा रहा है।
इतिहास दर्शाता है कि भारत-नेपाल संबंध (India-Nepal Relations) उतने सरल नहीं रहे। राजशाही (Monarchy) काल में दोनों देशों के राजनीतिक और सांस्कृतिक निकट संबंध थे; कुछ ऐतिहासिक प्रसंगों में नेपाल के शासकों ने भारत से निकटता की बात कही, पर स्वतंत्रता और सामरिक समझौतों ने हमेशा सीमाएँ तय कीं — जवाहरलाल नेहरू के दौर में भी नेपाल के विलय-संबंधी प्रस्तावों को बड़े पैमाने पर ठुकराया गया।
2008 में राजशाही के अंत और माओइस्ट (Maoist) आन्दोलन के बाद नेपाल ने वैकल्पिक बाहरी साझेदारों की ओर रुख किया; चीन ने आर्थिक व रणनीतिक संलग्नता बढ़ाई और राजनीतिक दलों के साथ संपर्क मजबूत किए। पर इतिहास यह भी बताता है कि माओवादियों का स्वतः-स्फूर्त रूप से सीधे चीन से ‘विस्थापन’ नहीं हुआ — रिश्ते परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहे।
अब प्रश्न यह है कि सुशीला कार्की के नेतृत्व से भारत-नेपाल रिश्ते कैसे प्रभावित होंगे। शुरुआती संकेतों में भारत ने अन्तरिम सरकार का स्वागत किया और शांतिपूर्ण संक्रमण व क्षेत्रीय स्थिरता के प्रति अपनी सहमति जताई है। दिल्ली को उम्मीद है कि कानूनी-पारदर्शिता और पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया पड़ोसी देश में भरोसा लौटाएगी। वहीं विश्लेषक कहते हैं कि नया नेतृत्व संसद-प्रक्रियाओं व सीमा, आपूर्ति-शृंखला व चाइना-इन्फ्लुएंस पर संतुलन बनाये रखने का मुद्दा निपुणता से संबोधित करेगा; भारत को अब ‘‘व्यावहारिक-कूटनीति’’ (Diplomacy) और युवा-चाह की मांगों को समझते हुए जुड़ाव बढ़ाने की ज़रूरत है।
सुशीला कार्की की भारत-से जुड़ी शिक्षा और गैर-पार्टीगत छवि दिल्ली के लिए अवसर भी है और चुनौती भी। अगर अन्तरिम सरकार पारदर्शिता के साथ चुनाव कराए और क्षेत्रीय संतुलन कायम रखे तो दोनों देशों के रिश्तों में स्थिरता लौट सकती है, वरना भू-राजनीतिक सपेक्टरु में चीन (China) की सक्रियता और घरैली जनाभावें आगे भी जटिलताएँ बढ़ा सकती हैं।
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