वे 15वीं शताब्दी में वाराणसी के पास सीर गोवर्धनपुर में जन्मे थे। समाज ने उन्हें “अछूत” जाति में जन्म लेने के कारण नीचा समझा, परंतु उनके हृदय में जो दिव्यता, प्रेम और करुणा थी, उसने पूरे समाज को झकझोर दिया।
भक्ति का मर्म: अंतःकरण की निर्मलता
रैदास जी ने भक्ति को बाहरी कर्मकांडों से नहीं, बल्कि मन की सच्चाई और प्रेम से जोड़ा। उनका कहना था कि भगवान किसी जाति या रूप में नहीं, बल्कि निर्मल हृदय में बसते हैं।
उन्होंने कहा —”मन चंगा तो कठौती में गंगा।”
(यदि मन पवित्र है, तो पानी की कठौती भी गंगा के समान है।)
इस एक पंक्ति में उन्होंने सारी भक्ति का सार रख दिया —
भक्ति मंदिरों या तीर्थों की नहीं, बल्कि मन की पवित्रता की मांग करती है।
संत रैदास ने समाज में फैले भेदभाव, ऊँच-नीच और जातिगत विभाजन का तीखा विरोध किया। उनका जीवन स्वयं एक साक्ष्य था कि ईश्वर के दरबार में कोई छोटा या बड़ा नहीं होता।
उनका प्रसिद्ध दोहा है-
ऐसा चाहूँ राज मैं, जहाँ मिलै सबन को अन्न,
छोट-बड़ो सब सम बसैं, रैदास रहै प्रसन्न।
यह दोहा उनके समतावादी समाज के स्वप्न को दर्शाता है —
एक ऐसा लोक जहाँ कोई भूखा न रहे, कोई छोटा-बड़ा न हो, और सब प्रेम से रहें।
रैदास जी का कहना था कि परमात्मा कहीं बाहर नहीं, वह हर जीव के भीतर है। जब मन शुद्ध होता है, तो वही परमात्मा भीतर प्रकट होता है।
“हरि बिन कौन सहाई रे, जग अंधियारो भया।”
(ईश्वर के बिना कौन सहारा देगा, जब यह जग अंधकार में डूब गया है।)
रैदास और मीराबाई:
संत रैदास की शिक्षाओं का प्रभाव महान भक्त मीराबाई पर भी पड़ा। मीरा उन्हें अपना गुरु मानती थीं। उन्होंने कहा था —
“गुरु मिल्या रैदास जी, दीन्हीं ज्ञान की गुटकी।”
रैदास जी ने उन्हें बताया कि सच्चा प्रभु प्रेम, भीतर की सादगी और सेवा से मिलता है। मस्जिद सों कुछ घिन नहीं, मंदिर सों नहीं पिआर। दोए मंह अल्लाह राम नहीं, कहै रैदास चमार॥
न तो मुझे मस्जिद से घृणा है और न ही मंदिर से प्रेम है। रैदास कहते हैं कि वास्तविकता यह है कि न तो मस्जिद में अल्लाह ही निवास करता है और नही मंदिर में राम का वास है।
अंतिम संदेश: प्रेम ही धर्म है।रैदास जी का जीवन इस बात का साक्षी है कि जब मन निर्मल होता है, तो समाज की जंजीरें स्वतः टूट जाती हैं।
उन्होंने जीवन भर सिखाया कि —
“जात पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।”
यह वाणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, क्योंकि यह मनुष्य को अहंकार, भेदभाव और बाहरी दिखावे से मुक्त करती है।
संत रैदास केवल एक संत नहीं, बल्कि मानवता की चेतना के जाग्रत स्वर हैं। उनका भक्ति मार्ग सरल है —
सच्चा मन, सच्चा प्रेम और सबमें ईश्वर की दृष्टि।
“रैदास कहै सुनो रे भाई, सन्तन संग रहो।
मन चंगा तैं सब चंगा, यह सन्देश कहो।”
(मृदुला दुबे योग शिक्षक और अध्यात्म की जानकार हँ।)
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