शंकराचार्य की शिक्षा- ‘ज्ञान से अहंकार आए तो वह बंधन है’

भज गोविंदं मूढ़मते” भज गोविंदम मूढमते।"हे मूढ़ मति वाले मनुष्य! तू केवल गोविंद (ईश्वर) का भजन कर।” शंकराचार्य ने करुणा भरे हृदय से मनुष्य को जगाने के उद्देश्य से कहा - "मूढ़मते" सच्चा गुरु अज्ञानी शिष्य को सावधान कर जगा देता है। बहुत समय पहले काशी में शंकराचार्य ने देखा कि एक वृद्ध व्यक्ति अंतिम समय में भी संस्कृत व्याकरण के नियमों को बार बार रट रहा था। उसे देखकर शंकराचार्य ने बहुत आश्चर्य चकित होकर प्रेम से कहा—

Written By : मृदुला दुबे | Updated on: December 20, 2025 9:42 pm

“भज गोविंदं भज गोविंदं गोविंदं भज मूढ़मते।

संप्राप्ते सन्निहिते काले नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणम्॥”

अर्थात
हे भोले जीव! मृत्यु के समय तुम्हें
व्याकरण के नियम नहीं बचाएँगे।
उस समय तुम्हें केवल ईश्वर-स्मरण और आत्मबोध ही बचाएगा।

और आगे शंकराचार्य ने कहा -यदि ज्ञान से अहंकार आए तो वह बंधन है। भक्ति और अनुभव से रहित विद्या अधूरी है।अंतिम सत्य को केवल अनुभूति से जाना जाता है। मनुष्य पद, प्रतिष्ठा और झूठी शान में लिप्त होकर अपनी आत्मा को भूल जाता है।

इसीलिय आज भी शंकराचार्यजी बार बार कहते हैं—”भज गोविंदं मूढ़मते” अर्थात—होश में आओ, भीतर लौटो, सत्य को पहचानो।

ऋषि–मुनियों, तपस्वियों और महात्माओं की साधना से भारत प्रकाशमान है। जब समाज कर्मकांड, अंधविश्वास और बाह्य आडंबर में उलझने लगता है, तब कोई महापुरुष जन्म लेता है, जो धर्म को उसकी मूल चेतना से फिर से जोड़ देने का बीड़ा उठाता है।
आदि गुरु शंकराचार्य ऐसे ही विलक्षण, अद्भुत और युगप्रवर्तक आचार्य थे, जिन्होंने अल्पायु में ही भारत के दार्शनिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन को नई ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया।

एक छोटे से बालक के प्रश्न ने युग को नईं दिशा दी। जब संसार सुख, भोग और पहचान के पीछे दौड़ रहा था, तब केरल के कालड़ी ग्राम में आठ वर्ष का एक बालक अपने जीवन से सबसे गहरा प्रश्न पूछ रहा था -“सत्य क्या है?”

यह कोई साधारण प्रश्न नहीं था। यह वही प्रश्न था जिसने बुद्ध को राजमहल छोड़ने पर विवश किया और उपनिषदों को जन्म दिया।
शंकर ने अनुभव किया कि—दुख बाहर नहीं है, दुख अज्ञान से पैदा होता है। ज्ञान के जागते ही मोह और भ्रम स्वयं मिट जाते हैं।

उनकी यही दृष्टि उन्हें बाहर से भीतर की यात्रा पर ले गयी। मनुष्य जिसे पूरे जीवन बाहर खोजता रहता है—वह स्वयं ही है।

आदि गुरु शंकराचार्य का जन्म 788 ईस्वी में केरल के कालड़ी ग्राम में हुआ। पिता शिवगुरु और माता आर्यम्बा अत्यंत धार्मिक और शिवभक्त थे। उनकी माता की घोर तपस्या और शिवभक्ति के फलस्वरूप शंकर का जन्म हुआ।

शंकराचार्य ने कहा कि ध्यान से देखो – तितिक्षा हमारे अंदर है या नहीं । बचपन से ही शंकर असाधारण प्रतिभा से भरे थे।
एक बार सुने हुए श्लोक को कंठस्थ कर लेना, अल्प आयु में वेद–उपनिषदों का अध्ययन आदि साधना ने उन्हें एक असाधारण व्यक्तित्व बना दिया।

उदाहरण: बचपन में सामान्य बालकों का मन खिलौनों में लगता है किंतु शंकर उपनिषदों के वाक्यों को दोहराते थे और बार बार कहते –
“तत्त्वमसि” अर्थात तू वही है।

आठ वर्ष की आयु में ही शंकर ने संन्यास लेने का निश्चय किया। यह निर्णय साहसिक था। माता आर्यम्बा का हृदय व्याकुल हो उठा, परंतु लोककल्याण के लिए उन्होंने पुत्र को संन्यास की आज्ञा दी।

संन्यास शंकर के लिए संसार से भागना नहीं था, बल्कि—संन्यास भीतर की यात्रा है। मौन, ध्यान और सेवा से अहंकार को मिटाया जाता है।

शंकर ने महान दार्शनिक गौड़पाद की परंपरा के आचार्य गोविंदपादाचार्य को गुरु बनाया। महान गुरु की सेवा करते हुए उन्होंने अद्वैत वेदांत का गहन अध्ययन किया और आत्मानुभूति प्राप्त की।

शंकराचार्यजी ने वेदांत को एक सूत्र में पिरोकर कहा -“ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।”

अर्थात—
केवल ब्रह्म ही परम सत्य है।
यह संसार परिवर्तनशील है।
जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है।

धन, यौवन और अहंकार क्षणभंगुर है। इसलिए गोविंद का भजन करो।” यह दर्शन केवल बौद्धिक नहीं था, बल्कि ध्यान, साधना और आत्मबोध से जाना हुआ अनुभव था।

शंकराचार्य ने हिमालय से कन्याकुमारी तक पदयात्रा की।सनातन धर्म में उस समय अनेक मतभेद, कर्मकांड और वैचारिक भ्रम से थे।शंकराचार्य ने शास्त्रार्थों के माध्यम से ज्ञान का पुनर्जागरण किया।मंडन मिश्र कर्म कांड के ज्ञानी थे और शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के ज्ञानी। दोनों के बीच शास्त्रार्थ हुआ।

शास्त्रार्थ की निर्णायक मंडन मिश्र की पत्नी विदुषी भारती निर्णायक बनीं। यह शास्त्रार्थ तर्क नहीं था बल्कि अनुभव और विवेक का संगम था।

शंकराचार्यजी ने भारत में आध्यात्मिक एकता को बनाए रखने के लिए चार दिशाओं में चार मठों को स्थापित किए था।

श्रृंगेरी मठ – दक्षिण (कर्नाटक)

ज्योतिर्मठ – उत्तर (बद्रीनाथ)

शारदा मठ – पश्चिम (द्वारका)

गोवर्धन मठ – पूर्व (पुरी)

भारत में ज्ञान, धर्म और साधना की अखंड ज्योति को जलाए रखने के लिए इन मठों को स्थापित किया।

शंकराचार्य दार्शनिक होने के साथ साथ करुणा की प्रतिमूर्ति थे।
एक बार उन्होंने अपनी करुणा और सिद्धि से मृत बालक को जीवित किया था।

निर्वाण षट्कम् आत्मा की स्वतंत्रता का घोष है, सौंदर्य लहरी शक्ति उपासना का उत्कर्ष है।

32 बर्ष की उम्र में उन्होंने शरीर त्याग दिया, लेकिन उनका दर्शन ज्ञान आज भी मठों में, शास्त्रों में, साधकों के ध्यान में और महान भारत की आत्मा में जीवित है।

शंकराचार्यजी की शिक्षा:-

नश्वर संसार का सुख स्थायी नहीं है।

मुक्ति, मोक्ष कर्मकांड करने से नहीं बल्कि ज्ञान से मिलता है।

धर्म कोई परंपरा नहीं है बल्कि एक जाग्रत चेतना है।

अहंकार से नहीं, आत्मबोध से मुक्ति मिलती है।

ज्ञान यदि अनुभव से रहित है, तो वह बोझ है।
करुणा से रहित अनुभव वाला ज्ञान भी अधूरा है।”

(मृदुला दुबे योग शिक्षक एवं अध्यात्म की जानकार हैं।)

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