मनरेगा वर्ष 2005 में लागू हुआ था और इसे देश का पहला ऐसा कानून माना जाता है, जिसने ग्रामीण गरीबों को काम पाने का कानूनी अधिकार दिया। यदि तय समय में काम नहीं मिलता था तो सरकार पर भत्ता देने की जिम्मेदारी होती थी। पंचायत स्तर पर काम तय करना, मजदूरी का समयबद्ध भुगतान और सामाजिक अंकेक्षण जैसे प्रावधान इसे एक अधिकार आधारित कानून बनाते थे।
नया कानून, जिसे सरकार ने “विकसित भारत” के लक्ष्य से जोड़कर पेश किया है, मनरेगा से अलग संरचना अपनाता है। सरकार का कहना है कि अब ग्रामीण रोजगार को सिर्फ मजदूरी तक सीमित न रखकर आजीविका, कौशल और उत्पादक कार्यों से जोड़ा जाएगा। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक रोजगार गारंटी को 100 दिन से बढ़ाकर 125 दिन किया गया है और योजना के दायरे को व्यापक बनाया गया है। सरकार इसे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने वाला सुधार बता रही है।
हालांकि विवाद की जड़ सिर्फ नाम परिवर्तन नहीं, बल्कि कानून की प्रकृति में बदलाव है। जहां मनरेगा नागरिक को अधिकार देता था, वहीं नया कानून मिशन और योजना आधारित ढांचे पर अधिक निर्भर दिखता है। आलोचकों का कहना है कि इससे रोजगार पाने की संवैधानिक गारंटी कमजोर हो सकती है और जवाबदेही का ढांचा ढीला पड़ सकता है। विपक्ष का आरोप है कि यह बदलाव गरीबों के अधिकारों से पीछे हटने जैसा है और महात्मा गांधी का नाम हटाना प्रतीकात्मक संदेश भी देता है।
राजनीतिक स्तर पर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने इसे “गरीब विरोधी कदम” बताया है। उनका तर्क है कि ग्रामीण मजदूर के लिए सबसे अहम सवाल काम मिलने का है, न कि योजना का नाम या प्रस्तुति। वहीं सरकार समर्थक विश्लेषण इसे समय के अनुरूप बदलाव और ग्रामीण रोजगार नीति के आधुनिकीकरण के रूप में देख रहे हैं।
असल सवाल अब यह है कि मैदान में इस कानून का असर क्या होगा। यदि 125 दिन का रोजगार वास्तव में सुनिश्चित होता है और भुगतान व्यवस्था पारदर्शी रहती है, तो यह ग्रामीण मजदूरों के लिए लाभकारी हो सकता है। लेकिन यदि अधिकार आधारित ढांचे की जगह प्रशासनिक विवेक हावी हुआ, तो सबसे कमजोर वर्ग को नुकसान भी हो सकता है।
कुल मिलाकर, मनरेगा के बाद आया यह नया कानून सिर्फ एक योजना नहीं, बल्कि ग्रामीण भारत के प्रति सरकार की बदलती सोच को दर्शाता है। इसका वास्तविक मूल्यांकन आने वाले समय में, इसके क्रियान्वयन और परिणामों से ही हो सकेगा।
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