बंद के दौरान भाजपा, जदयू और सहयोगी दलों ने इसे केवल एक “मां के अपमान” का मुद्दा नहीं, बल्कि “सभी माताओं के सम्मान” से जोड़ा। नेताओं ने कहा कि यह आंदोलन केवल प्रधानमंत्री की मां तक सीमित नहीं बल्कि हर महिला के मान-सम्मान की रक्षा के लिए है।
विशेषज्ञ मानते हैं कि यह नैरेटिव एनडीए को चुनाव में महिला मतदाताओं तक पहुँचने का एक मजबूत आधार दे सकता है। पहले से ही राज्य सरकार की योजनाओं में महिलाओं को आर्थिक-सामाजिक लाभ देने पर जोर रहा है, और अब इस बंद ने उस विमर्श को और धार दी है।
विपक्ष पर दबाव, लेकिन जवाबी नैरेटिव की तैयारी
महागठबंधन की ओर से इस बंद को “राजनीतिक नाटक” करार दिया गया। विपक्षी नेताओं का तर्क है कि सरकार असल मुद्दों—बेरोजगारी, महंगाई और कानून-व्यवस्था—से ध्यान भटकाने के लिए भावनात्मक कार्ड खेल रही है। हालांकि, एनडीए के इस कदम ने विपक्ष को बचाव की मुद्रा में ला दिया है। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, यदि महिला मतदाताओं में यह भावनात्मक जुड़ाव गहराया तो विपक्षी दलों को रणनीति बदलनी पड़ सकती है।
ग्राउंड रियलिटी: मिला-जुला असर
पटना, गया, औरंगाबाद, वैशाली, समस्तीपुर समेत कई जिलों में बंद का असर देखा गया। कुछ जगह बाजार बंद रहे, कई स्थानों पर सड़कें जाम हुईं। वहीं, स्कूल-कॉलेज और जरूरी सेवाएं सामान्य रहीं। यह बताता है कि बंद का असर व्यापक तो था लेकिन सर्वग्राही नहीं।
चुनावी निहितार्थ
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि यह बंद केवल विरोध-प्रदर्शन नहीं बल्कि चुनावी संदेश है। इससे तीन बड़े निहितार्थ निकलते हैं: पहला महिला मतदाता निर्णायक भूमिका में – एनडीए ने संदेश दिया कि वह महिलाओं के सम्मान के मुद्दे पर आक्रामक रुख अपनाने को तैयार है। दूसरा भावनात्मक राजनीति बनाम मुद्दों की राजनीति – चुनावी बहस अब भावनाओं और अस्मिता बनाम बेरोजगारी व विकास के सवालों के बीच खिंच सकती है और तीसरा गठबंधन एकजुटता की झलक – जदयू-भाजपा-लोजपा(रा) और अन्य सहयोगियों की साझा भागीदारी से यह संकेत गया कि एनडीए एकजुट होकर मैदान में है।
बिहार बंद ने आगामी विधानसभा चुनाव से पहले माहौल को गरमा दिया है। महिला वोटरों को साधने की एनडीए की कोशिश किस हद तक सफल होगी और विपक्ष इसका जवाब कैसे देगा—यह आने वाले हफ्तों में तय होगा। लेकिन इतना तय है कि यह बंद महज एक विरोध प्रदर्शन नहीं बल्कि चुनावी रणनीति का अहम हिस्सा बन चुका है।
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