बिहार चुनाव की तैयारियों के बीच 10 जुलाई को सर प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट (supreme court) में इस मुद्दे को लेकर दोनों पक्षों के बीच तीखी बहस हुई। चुनाव आयोग के वकील के के वेणुगोपाल एवं राकेश द्विवेदी ने कहा कि आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं देता है. इसी वजह से आधार को इलेक्शन कमीशन ऑफ़ इंडिया ने वैध दस्तावेजों की सूची में शामिल नहीं किया है. इस पर कोर्ट ने आयोग से ये सवाल उठाया कि जब अन्य सारे दस्तावेजों को बनाने के लिए आधार वैध हो सकता है तो, पहचान-पत्र के रूप में इसे शामिल क्यों नहीं किया जाना चाहिए ? सर की पूरी प्रक्रिया ही जब इसलिए की जा रही हो कि मतदाता की पहचान हो सके, ऐसे में आधार और राशन कार्ड जैसे दस्तावेज नागरिकता प्रमाण-पत्र के तौर पर इस्तेमाल क्यों नहीं हो सकते ? इस पर आयोग (election commission) के वकील ने ये दलील पेश की के आधार एक्ट में ये स्पष्ट लिखा है कि आधार सिर्फ पहचान प्रमाण-पत्र है ये नागरिकता का प्रमाण नहीं देता है. आयोग इसके महत्व से छेड़छाड़ नहीं कर सकता.
कोर्ट ने कहा कि वह एसआईआर (Special Intensive Revision) की न्यायिक समीक्षा मुख्य रूप से इस बात पर केंद्रित करेगा कि चुनाव आयोग (election commission) के पास इस प्रक्रिया को शुरू करने का अधिकार था या नहीं, इसे किस प्रकार से अंजाम दिया गया, और इसे शुरू करने का समय जो कि “बहुत कम” है। कोर्ट ने यह भी संकेत दिया कि बिहार में की जा रही मतदाता सूची की यह पुनरीक्षण प्रक्रिया स्पष्ट नहीं है, क्योंकि यह जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 21 के अंतर्गत न तो ‘सारांश पुनरीक्षण’ के रूप में आती है और न ही ‘विशेष पुनरीक्षण’ के अंतर्गत, जिससे इसकी प्रकृति संदिग्ध प्रतीत होती है।
न्यायमूर्ति धूलिया ने इस पर चिंता जताते हुए कहा, “यह मुद्दा बेहद महत्वपूर्ण है। यह हमारे लोकतंत्र की जड़ों से जुड़ा हुआ है। यह नागरिकों के मतदान के अधिकार से संबंधित है।” साथ ही अदालत ने ये भी कहा कि आयोग बिहार में मतदाता सूची के “विशेष गहन पुनरीक्षण” (Special Intensive Revision) के लिए आधार कार्ड, वोटर आईडी कार्ड और राशन कार्ड को भी मान्य दस्तावेजों के रूप में विचार करे। कोर्ट ने यह भी दर्ज किया कि निर्वाचन आयोग द्वारा 24 जून के आदेश में नागरिकता सिद्ध करने के लिए सुझाए गए ग्यारह दस्तावेजों की सूची अंतिम (exhaustive) नहीं है, बल्कि केवल उदाहरण स्वरूप (illustrative) दी गई थी। कोर्ट ने मौखिक रूप से स्पष्ट किया कि यह चुनाव आयोग (ECI) को इन दस्तावेजों के आधार पर किसी व्यक्ति का नाम मतदाता सूची में शामिल करने का आदेश नहीं है। आयोग को इन्हें स्वीकार या अस्वीकार करने का पूरा विवेकाधिकार है। कोर्ट ने कहा, “हमने यह नोट किया है कि आपने स्वयं कहा है कि आपकी सूची अंतिम नहीं है। अगर आपके पास आधार को खारिज करने का उचित कारण है, तो आप ऐसा कर सकते हैं, लेकिन उसका कारण स्पष्ट रूप से बताना होगा।”
ईसीआई के वकील ने कहा कि बिहार में एसआईआर आवश्यक है क्योंकि राज्य में मतदाता सूची पर अंतिम बार गहन नजर 2003 में डाली गई थी। उन्होंने कहा कि 5 करोड़ से ज्यादा गणनाएं पहले ही भरी जा चुकी हैं और इनमें से आधी ईसीआई नेट पर अपलोड कर दी गई हैं।
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ताओं कपिल सिब्बल, ए.एम. सिंघवी, गोपाल शंकरनारायणन, शादान फरासत और वृंदा ग्रोवर ने दलील दी कि यह “विशेष गहन पुनरीक्षण” (SIR) असल में वोटर पंजीकरण के नाम पर नागरिकता की जांच है, खासकर कमजोर वर्गों के लोगों की। उन्होंने तर्क दिया कि निर्वाचन आयोग (ECI) के पास नागरिकता की जांच करने का कोई अधिकार नहीं है; यह कार्य केवल गृह मंत्रालय का है। कपिल सिब्बल ने कहा, “ECI का एक निचले स्तर का अधिकारी, जैसे कि बीएलओ (BLO), नागरिकता की जांच करता है। जबकि नागरिकता तय करने का अधिकार केवल भारत सरकार के पास है।” उन्होंने बिहार सरकार के एक सर्वेक्षण का हवाला देते हुए बताया कि राज्य की लगभग 90% जनसंख्या के पास आधार कार्ड है, जबकि केवल चौदह प्रतिशत के पास मैट्रिकुलेशन प्रमाणपत्र और दो प्रतिशत के पास पासपोर्ट है। उन्होंने कहा, “इसका मतलब है कि आधार होने के बावजूद बड़ी संख्या में लोगों को मताधिकार से वंचित किए जाने का खतरा है। अब नागरिक को ही यह साबित करने की जिम्मेदारी दी जा रही है कि वह वास्तव में भारतीय नागरिक है।”
श्री सिंहवी ने दलील दी कि चुनाव आयोग धारा 21(3) जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 या संविधान के अनुच्छेद 324 के अंतर्गत तब तक कोई अधिकार नहीं ले सकता, जब तक उसके पास कोई वैध कारण या आधार न हो। उन्होंने कहा कि यह विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) मतदाता पंजीकरण नियमावली, 1960 का उल्लंघन करता है।
उन्होंने कहा, “इन शक्तियों का इस्तेमाल चुनाव से पहले समान अवसर को खत्म करने और जनवरी 2003 से कम से कम पांच बार मतदान कर चुके करोड़ों बिहारवासियों को मताधिकार से वंचित करने के लिए नहीं किया जा सकता। चुनाव आयोग द्वारा 24 जून को जारी एक प्रशासनिक आदेश ने बिहार के लाखों मतदाताओं को भंवर में डाल दिया है। यह एक मनमानी और भ्रमित करने वाली प्रक्रिया है।”
सिंहवी ने सुप्रीम कोर्ट के लाल बाबू हुसैन बनाम निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी मामले का हवाला देते हुए कहा कि एक व्यक्ति, जिसका नाम पहले से मतदाता सूची में दर्ज है, उसे दोबारा नागरिकता साबित करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। वहीं, श्री शंकरनारायणन ने सवाल उठाया कि जब यह SIR प्रक्रिया पूरे देश के लिए होनी थी, तो इसकी शुरुआत केवल बिहार में ही क्यों की गई? वह भी ऐसे समय में जब नवंबर में वहां विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।
मामले की अगली सुनवाई 28 जुलाई को होगी। चुनाव आयोग को 21 जुलाई तक काउंटर एफिडेविट देना है।
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