तो क्या अब गरीबी का मुँह इतना बड़ा हो चुका है कि वह ब्रह्मभोज को एक ही बार में गटकने लगी है? क्या कर्ज का खौफ इतना बढ़ गया है कि पिता को पिण्डदान के लिए बढ़े हाथ थरथराने लगे हैं? बिहार के मधेपुरा जिला के रानीपट्टी गाँव के एक फैसले से यही संकेत मिल रहे हैं। गाँव में अब न तो ब्रह्मभोज होगा और न ही कर्मकांड।
पिंड ही पितरों का भोजन :
सनातन धर्म के अनुसार पिंड ही पितरों का भोजन होता है। पितरों के लिए साल भर का राशन हर पुत्र अपने पिता को पिंड दान के रूप में ही अर्पित करता है। पितृपक्ष में पिंड दान का विधान इसीलिए किया गया है कि पितर भूखे न रहें। हालांकि गरीबी, भुखमरी अब इसकी राह में रोड़ा बन गई है। सनद रहे कि विपक्ष का मुद्दा भी गरीबी और बेरोजगारी ही है।
मृत्यु भोज और कर्मकांड पर पाबंदी :
मीडिया में आई खबरों के अनुसार, बिहार के मधेपुरा जिले के कुमारखंड प्रखंड स्थित रानीपट्टी गाँव में गाँववासियों ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया है कि अब इस गाँव में किसी की भी मृत्यु होने के बाद न तो ब्रह्मभोज होगा और न ही कर्मकांड।
क्यों त्यागनी पड़ी परंपरा :
ब्रह्मभोज और कर्मकांड के त्याग का कारण पूछने पर गाँव के लोगों का कहना था कि गाँव के वार्ड संख्या 10 निवासी जुगत लाल यादव का निधन हो गया था। अंतिम संस्कार के लिए लोग जब एक जगह जमा हुए तो रानीपट्टी पश्चिम स्थित शिव मंदिर परिसर में एक महत्वपूर्ण बैठक हुई। बैठक में एक सामूहिक निर्णय लिया गया। इसके मुताबिक अब किसी के निधन पर ब्रह्मभोज और कर्मकांड गाँव में नहीं किया जाएगा।
2020 में ही इस आंदोलन की पड़ गयी थी नींव :
गाँव के लोगों का कहना है कि इस आंदोलन की नींव 2020 में चंद्रकिशोर दास के निधन के बाद ही पड़ी थी, जब बिना किसी कर्मकांड के श्रद्धांजलि दी गयी थी। तब कुछ लोगों ने इस नये चलन का विरोध किया था। हालांकि बाद में इसे अन्य लोग भी सहजता से स्वीकार करने लगे। उनका मानना था कि असली श्रद्धांजलि दिखावा नहीं, सादगी और सहानुभूति है।
कर्ज में डूबती जिन्दगी ने किया मजबूर:
गाँव के लोगों का कहना है कि कर्ज में डूबती जिन्दगी ने यह राह दिखाई। रानीपट्टी पूर्वी और पश्चिमी टोले के लोगों ने यह फैसला ले लिया कि वे ब्रह्मभोज और कर्मकांड जैसे आर्थिक बोझ वाले धार्मिक आचारों का अब और नहीं निर्वाह कर पाएँगे। गाँव के वरिष्ठ नागरिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि मृत्यु के बाद भोज की परंपरा गरीब परिवारों की कमर तोड़ देती है। कई बार इस कार्य के लिए कर्ज लेना पड़ता है। ऐसा भी देखने को मिलता है कि लिए गए कर्ज की भरपाई अगली पीढ़ी भी नहीं कर पाती है। गाँव के संजय कुमार कहते हैं कि ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहाँ लोगों ने माँ-बाप के निधन पर भोज करने के लिए कर्ज लिया और वर्षों बाद भी उससे उबर नहीं सके। हालांकि कुछ लोग यह भी मानते हैं कि सामाजिक कुरीति को मिटाने के लिए यह एक बढ़ा कदम है।
बिना खर्च भी धार्मिक आचारों का निर्वाह संभव :
मृत्युभोज शब्द को गलत बताते हुए बक्सर के बड़कागाँव निवासी आचार्य रामतीर्थ मिश्र कहते हैं कि हिंदुओं में मृत्यु का उत्सव नहीं मनाया जाता इसलिए मृत्युभोज नहीं होता, ब्रह्मभोज का विधान है। मृत्युभोज शब्द सनातनविरोधियों द्वारा गढ़ा गया शब्द है।। सनातन धर्म के कर्मकांड के विरोध में इस शब्द का प्रयोग एक खास विचारधारा के ही लोग करते हैं। वैसे भी श्राद्ध में कर्ज लेने की मनाही है, फिर ब्रह्मभोज पर इतना खर्च क्यों? यह दिखावा किसलिए?
आचार्य विमलेश, संजय व रविभूषण पंडित का कहना है कि सनातन की शास्त्रीय व्यवस्था को छोड़ना उचित नहीं। जरूरी नहीं कि ब्रह्मभोज का भव्य आयोजन हो। पशु, पक्षी को भी चंद निवाले खिलाकर इसे संपन्न किया जा सकता है। इसी तरह से शिक्षित लोग खुद मंत्रों का उच्चारण कर पिंडदान कर सकते हैं। इस तरह से खर्च भी नहीं होगा और धार्मिक आचारों का निर्वाह भी हो जाएगा।
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