भोजपुरी समालोचना की नई उड़ान है डॉ. देवेन्द्र नाथ तिवारी की पुस्तक ‘ककहरा’

डॉ. देवेन्द्र नाथ तिवारी (Dr. Devendra Nath Tiwari) की ‘ककहरा’ पुस्तक भोजपुरी साहित्य (Bhojpuri Literature) में ताज़ा हवा के झोंके-सी है। इसमें भोजपुरी लोक की खुशबू और साहित्यिक समृद्धि का अनोखा मेल है। पुस्तक भोजपुरी कविता और गीतों को वैचारिक ढाँचे में पिरोकर प्रस्तुत करती है। ‘ककहरा’ नाम अपने आप में विशेष है। यह भोजपुरी साहित्य के पहिले-पहिल पाठ की तरह है। जैसे बच्चा अक्षर-ज्ञान के क्रम में ‘ककहरा’ सिखता है, वैसे ही यह पुस्तक पाठकों को भोजपुरी की समृद्ध परंपरा से अवगत कराती है। उन्हें जोड़ती है। लोक-संस्कृति की गहराई में ले जाती है। गुमनाम रचनाकारों को सामने लाती है। उन्हें सम्मान देती है।

पुस्तक का आवरण और लेखक
Written By : ध्रुव गुप्ता | Updated on: August 22, 2025 10:52 pm

इसकी शुरुआत फेसबुक पर हुई। ‘भोजपुरी के गैरखेमाबाज कवि’ शृंखला से जन्मी। वस्तुत: इस शृंखला में उन कवियों पर प्रकाश डाला गया, जो मुख्यधारा से दूर रहे। दूर क्या रहे, यह कहना समीचीन होगा कि उन्हें दूर रखा गया। पाठकों ने प्रोत्साहित किया। सराहा भी। आभासी पन्नों की आवाज ने पुस्तक का स्वरूप लिया। हाल ही में इसका विमोचन गोरखपुर के यायावरी भोजपुरी महोत्सव में हुआ।

डॉ. तिवारी युवा आलोचक हैं। भोजपुरी साहित्य और संस्कृति पर उनके अध्ययन का दायरा व्यापक है। ‘भोजपुरी पत्रकारिता के इतिहास’ और ‘भोजपुरी की संवैधानिक मान्यता’ उनकी चर्चित कृतियाँ हैं। इस कड़ी में ‘ककहरा’ उनकी नई आमद है। उपलब्धि भी। डॉ. तिवारी भोजपुरी को महज बोली नहीं मानते। उनके लिए यह सामाजिक संघर्ष और संवेदनाओं की भाषा है। उनकी लेखनी में वैचारिक चेतना, सैद्धांतिक तार्किकता और लोक सहजता का मेल है। ‘ककहरा’ भोजपुरी समालोचना के क्षेत्र में एक नए डेग की तरह है। यह एक शृंखला की पहली कड़ी है।

भोजपुरी की रचनात्मकता तो समृद्ध है, मगर समालोचना का क्षेत्र अपेक्षाकृत कमज़ोर रहा। इसे अक्सर ‘उपभाषा’ या ‘बोली’ कहकर हल्के में लिया गया। ‘ककहरा’ इस सोच को चुनौती देती है। 304 पन्नों में फैली यह पुस्तक 42 रचनाओं का पाठ-केंद्रित विश्लेषण करती है। यह भाषा, भाव, प्रवाह, सामाजिक संदर्भ और सौंदर्यबोध को परखती है। जैसे कि, विरह गीतों को सामाजिक बंधनों के प्रतिरोध के रूप में देखा जाना। सामंती शोषण पर आधारित गीतों को ऐतिहासिक संदर्भ में रखा जाना। पुस्तक गुमनाम कवियों को सामने लाती है। वैसी रचनाएँ जो मौखिक परंपरा में बिखरी थीं। अप्रकाशित थीं। पर, लोक मानस में रची-बसी थीं। ‘ककहरा’ उन्हें काव्य की कसौटी पर परखती है।
पुस्तक में शामिल कई कविताएँ भावनाओं के फुहारों से सिंचित और भारतीय जीवन-दर्शन से अनुप्राणित हैं। पंकज भारद्वाज की कविता “हमरा बोले नाहीं आवे…” की पंक्तियाँ “हमरा खून आ पसीना के का मोल बाटे जी, उनुका गोड़वो के धूरिया अनमोल बाटे जी…” के संदर्भ में डॉ. तिवारी की सारगर्भित टिप्पणी उल्लेखनीय है। उनका सूक्ष्म-सटीक विश्लेषण उनके समर्पण की बानगी मात्र है। पुस्तक में शामिल कविताएँ वस्तुत: समाज के हर वर्ग एवं मुद्दे का प्रतिनिधित्व करती दिखती है।

शामिल रचनाएँ वैसे तो हर रचनाकार की अपनी-अपनी अभिव्यक्ति है, परंतु डॉ. तिवारी इसे इनसे, उनसे, हर किसी से थोड़ा-थोड़ा जोड़ते हैं। अपनी टिप्पणी से जीवंतता व सहजता का प्रवाह करते हैं। पुस्तक में कई जगह डॉ. तिवारी समय का सटीक बखान करते हुए समाज को चेताते हुए भी दिखते हैं। वास्तव में इसे पढ़ने के बाद तीन बातें बरबस ही स्मरण आती हैं– वर्तमान एवं भावी चुनौतियाँ, समेकित प्रयास और समुचित उपाय। अर्थात चुनौतियाँ अतीत में भी रहीं, वर्तमान भी इससे अछूता नहीं और ये आगे भी आएँगीं। परंतु, समय की माँग है कि हमें ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए न केवल सतत् व इष्टतम रूप से समेकित प्रयास करने होंगे अपितु ठोस एवं समयानुकूल उपाय भी ढूँढ़ने होंगे। पुस्तक को पढ़ते हुए भोजपुरी के सुविख्यात कवि और रचनाकार मोती बी. ए. जी की निम्नांकित पंक्तियाँ बरबस याद आती हैं:-
“प्रेम, त्याग, संयम, उदारता जेमें जेतना होला
फूल, गंध, फल, रस ओ सब वस्तुन में ओतना होला ”

पुस्तक में नदी, प्रपात का कलकल है। खेत-खरिहान और गाँव-बधार की भीनी खुश्बू भी। और मेहनतकश जिनिगी की बानी तो है ही। इसमें एक ओर टीस है, दूसरी ओर चेतना का प्रस्फुटन तो तीसरी ओर मानो प्राकृतिक सौंदर्य का सजीव प्रसारण चल रहा हो। नदियों, खेतों और गाँवों-गलियों का वर्णन पाठक को लोक-परिवेश में ले जाता है। छंद, अलंकार और शिल्प का विश्लेषण रचनाओं को लिखित साहित्य की ओर ले जाता है। यह भोजपुरी समालोचना को हिंदी-बांग्ला जैसी भाषाओं के समकक्ष लाने की कोशिश है। हालांकि, यह पुस्तक महज एक शुरुआत है। यह भोजपुरी को वैश्विक स्तर और मंच की कसौटी पर परखती है। भोजपुरी समालोचना को और विस्तार की आवश्यकता है। तथापि, डॉ. तिवारी का योगदान विपुल है। डॉ. तिवारी ने पुस्तक में अपने दायित्वों का सम्यक निर्वहन किया है, इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। ‘ककहरा’ भोजपुरी साहित्य के अतीत, वर्तमान और भविष्य के बीच का संवाद है।

भोजपुरी अनुरागियों और शोधकर्ताओं के लिए यह पुस्तक अनुपम है। इसे पढ़ते हुए लगता है, भोजपुरी साहित्य अब हाशिए से निकलकर मुख्यधारा में अपनी जगह बनाएगा। असल में ‘ककहरा’ महज पुस्तक भर नहीं है, भोजपुरी की सांस्कृतिक पहचान को जीवंत करने की दिशा में नन्हें कदमों की बड़ी छलांग है।

(पुस्तक की समीक्षा बक्सर निवासी युवा लेखक और आलोचक श्रीकृष्णाजी पांडेय ने की है। ये ‘क से कैथी किताब’ के रचनाकार भी हैं।)

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