मैं गुरु के चरण कमलों की रज को प्रणाम करता हूँ,
जो सुंदर स्वादिष्ट, सुगंधित और अनुराग (प्रेम) रूपी रस से परिपूर्ण है।
वह चरणरज अमृतमय और मणियों से बनी हुई सुंदर चूर्ण के समान है,
जो समस्त सांसारिक रोगों और विकारों का नाश करने वाली है।
यह दोहा गुरु महिमा का अत्यंत सुंदर वर्णन करता है और इसे प्रायः संत तुलसीदास जी की वाणी में माना जाता है। चरणरज को जीवन की सबसे बड़ी औषधि और आध्यात्मिक मोक्ष का आधार कहा गया है।
गुरु की शक्ति – डोगरे महाराज की दृष्टि से–
“गुरु साक्षात ब्रह्म है। जो गुरु को पहचाना, उसने स्वयं को जान लिया।”
डोगरे महाराज : डोगरे महाराज, महाराष्ट्र के एक महान संत, योगी और आत्मज्ञानी पुरुष थे। उनका जीवन, भक्ति और आत्म-साक्षात्कार का प्रत्यक्ष मिसाल था। वे जब गुरु की बात करते थे, तो केवल बाहरी उपदेशक की नहीं, बल्कि उस ज्वलंत चेतना की बात करते थे जो शिष्य के भीतर परमात्मा की अग्नि जलाती है।
गुरु – केवल शरीर नहीं, चेतना का दीप।
डोगरे महाराज कहते थे – गुरु को शरीर से मत देखो। शरीर तो एक माध्यम है। गुरु उस दिव्य शक्ति का नाम है जो अंधकार को चीरकर भीतर प्रकाश लाती है।
उन्होंने अपने गुरु संत गुलाबराव महाराज को साक्षात ज्ञानस्वरूप माना। गुलाबराव अंधे थे, परंतु डोगरे महाराज कहते थे – “मेरे गुरु आँखों से नहीं, आत्मा से देखते हैं। उनकी दृष्टि ने मुझे स्वयं से मिला दिया।”
गुरु की कृपा का स्वरूप:
एक बार एक शिष्य ने पूछा, “महाराज, गुरु की कृपा कैसे जानें?”
डोगरे महाराज बोले-
जब बिना शब्दों के भीतर शांति उतरने लगे,
जब प्रश्न समाप्त हो जाएँ और शुद्ध मौन बच जाए,
जब मन ठहर जाए और हृदय रो उठे प्रेम में —
तो समझो, गुरु कृपा कर गया।
डोगरे महाराज के अभंगों में गुरु की महिमा स्पष्ट होती है:
“गुरु” म्हणजे चैतन्य, गुरु म्हणजे परमेश्वर।
त्याची करुणा पडता, संसार होई निर्भर।”
(गुरु ही चैतन्य हैं, गुरु ही परमेश्वर। उनकी कृपा से यह संसार भारहीन हो जाता है।)
गुरु और शिष्य का संबंध:
उनका मानना था — गुरु और शिष्य का रिश्ता लौकिक नहीं, आत्मिक होता है। गुरु न तो किसी पंथ का बंदन है, न किसी वंश का अधिकार। गुरु वह है जो तुम्हारे भीतर की दिव्यता को तुम्हारे सामने प्रकट कर दे।
“गुरु” वो नहीं जो भीड़ को मोहित करे,
गुरु वो है जो तुम्हें भीड़ से अलग कर दे।”
डोगरे महाराज का उपदेश:
उन्होंने अपने शिष्यों से कहा-
“गुरु की सेवा करो, लेकिन सेवा शरीर की नहीं, मन की करो।
श्रद्धा रखो, लेकिन अंधश्रद्धा नहीं —
गुरु को परखो, और जब जानो कि वह आत्मज्ञानी है,
तो फिर पूर्ण समर्पण कर दो। तभी वह तुम्हें मुक्त कर सकेगा।”
गुरु की शक्ति क्या है?
गुरु वह दीपक है,
जो न जलता दिखता है, न जलाता है,
लेकिन उसके होने से अंधकार चला जाता है।
डोगरे महाराज के जीवन ने यह सिखाया कि गुरु न हो तो साधना अधूरी है, और गुरु मिल जाए तो जीवन सिद्ध हो जाता है।
1. रामचरितमानस – बालकाण्ड से:
दोहा:
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना।
मोह जनित संसय सब हरना॥
अर्थ: मैं सबसे पहले ब्रह्मज्ञानी गुरु के चरणों में वंदना करता हूँ, जो मोह से उत्पन्न सभी शंकाओं को हर लेते हैं।
2. गुरु के बिना ज्ञान नहीं (बालकाण्ड):
चौपाई:
बिनु सत्संग विवेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
गुरु बिनु होइ न ज्ञान गोविंद।
बिनु हरि कृपा न लहइ भगवंत॥
अर्थ:
सच्चे सत्संग के बिना विवेक उत्पन्न नहीं होता, और वह सत्संग भी राम की कृपा के बिना दुर्लभ है। गुरु के बिना गोविंद का ज्ञान नहीं होता और हरि की कृपा के बिना परमात्मा नहीं मिलता।
3. विनय पत्रिका – गुरु वंदना से:
पद:
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥
अर्थ:
मैं श्री गुरु के चरण कमलों की धूल से अपने मन रूपी दर्पण को स्वच्छ करता हूँ और फिर श्रीराम के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो चारों फल (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) देने वाला है।
4. तुलसीदास का एक भावपूर्ण दोहा :
दोहा:
गुरु से बढ़ कर जगत में, नहीं कोई औसर।
गुरु बिनु मति अंधियार है, तम में फँसा अचर॥
भावार्थ (रचित दोहा, तुलसी भाव में):
इस संसार में गुरु से बढ़कर कोई अवसर (साधन) नहीं है। गुरु के बिना बुद्धि अंधकारमय रहती है और जीव तम में (अज्ञान में) फँसा रहता है।
तुलसी का गुरु के प्रति निष्कपट प्रेम (विनय पत्रिका):
पद:
गुरु बिनु कौन बतावै बाटा।
हरि बिमुख भयो मूरख मनु, आपन हित अपाटा॥
भावार्थ:
गुरु के बिना कौन मार्ग दिखाएगा? जो हरि से विमुख है, वह मूर्ख मनुष्य अपने ही हित का रास्ता भूल जाता है।
तुलसीदास जी के अनुसार गुरु ही वह दीपक हैं जो जीव को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं। वे गुरु को हरि का साक्षात रूप मानते हैं, और उनकी वंदना के बिना किसी आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत भी नहीं करते।

(मृदुला दूबे योग शिक्षक और ध्यात्म की जानकार हैं ।)
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