पूरे विश्व में तथाकथित सभ्य समाज द्वारा जनजातीय लोगों के प्रति बहुत ही असंवेदनशील दृष्टिकोण रहा है. पिछली शताब्दी के प्रारंभ से अश्वेत और जनजातीय लोगों ने शिक्षा के प्रचार प्रसार के साथ ही अपने अस्तित्व,अधिकार ,सम्मान ,महत्व और परम्परा के लिए संगठित होना शुरू किया. पूरी दुनिया में जनजातीय लोगों को ‘असभ्य’,’अमानवीय’ जैसे शब्दों के द्वारा पुकारे जाने की विचारधारा में भी परिवर्तन होने लगा.
एक सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन आया लोगों के दृष्टिकोण में जब दुनिया के अन्य देशों की तरह भारत में भी जनजातीय दर्शन और समाज को लोग समझने और जानने लगे .इस दिशा में हरिराम मीणा जैसे विद्वानों की महती भूमिका रही है. इन्होंने गहन शोध और अध्ययन कर प्रस्तुत पुस्तक में भारत के विभिन्न क्षेत्र में निवास करने वाले जनजातीय लोगों की परम्परा ,जीवन मूल्यों,सिद्धांतों और आदर्शों से आम हिंदी पाठकों को अवगत कराया है.
तीन सौ चालीस पृष्ठ के इस पुस्तक में बीस खंड हैं .इसके अतिरिक्त एक विस्तृत परिशिष्ट भी जोड़ा गया है .इस परिशिष्ठ में पूरे भारत में जनजातीय लोगों के गोत्रों के बारे में बताया गया है .इसके अध्ययन से अज्ञान के बहुत सारे परतों से पर्दा हटता है. एक विस्तृत भूमिका में हरिराम जी इस पुस्तक के विषय,औचित्य और सन्दर्भ की विस्तृत चर्चा की है. मीणा जी लिखते हैं: “वैश्विक संदर्भ ग्रहण करते हुए विशेषकर भारतीय आदिवासी मानवता के दर्शन व समाज को समझने का प्रयास इस पुस्तक मरण किया जा रहा है. दार्शनिकों ने दर्शनशास्त्र के तीन मुख्य विभाग निर्धारित किये;तत्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा और मूल्य मीमांसा. सबसे जटिल प्रश्न तत्व मीमांसा का रहा है जिसके माध्यम से सृष्टि की उत्पत्तिको समझने का प्रयास किया जाता रहा.
इस गूढ़ पहेली को सुलझाने के लिए सृष्टि के मूल तत्व की खोज के प्रयास किये गए. आध्यात्मवादियों ने ईश्वर को भौतिक-वैज्ञानिकों ने पदार्थ को मूल तत्व माना. ज्ञानमीमांसा के अंतर्गत ज्ञान के स्रोत, स्वरूप सत्यापन व सीमाओं का विश्लेषण किया जाता है. इसके प्रमुख सिद्धांतों में बुद्धिवाद, अनुभववाद व अंतः प्रज्ञावाद हैँ. मूल्य मीमांसा मूल्य-व्यबस्था का अध्ययन है जिसमें शुभ-अशुभ,नैतिक-अनैतिक,सामाजिक-असामाजिक व्यवहार की परख की जाती है .” हरिराम जी ने पुस्तक को चार मुख्य खंडों में बांटा है.
ये खंड इस प्रकार हैं : 1.खंड -एक : दर्शन,मिथक व गणचिह्न 2.खंड -दो : इतिहास एवं परम्पराएँ। 3.खंड-तीन:जीवन के प्रति दृष्टिकोण 4.खंड -चार :वर्तमान चुनौतियाँ. उन चारों खंडों को बीस उपखंडों में बांटा गया है. कुछ उपखण्डों के शीर्षक देखिये तो आपको विषयो का अंदाज़ होगा .ये उपखंड हैं आदिम गणतंत्र , आदिवासी प्रतोरोध की ऐतिहासिक विभूतियां ,आदिवासी सौंदर्य बोध,अदिवासी समाज में स्त्री,मीडिया और आदिवासी, फिल्मों में आदिवासी, विलुप्त होती आदिम प्रजातियां,आदिवासी राजनैतिक नेतृत्व एवं आदिवासी प्रतिरोध का वर्तमान स्वरूप इत्यादि.
पुस्तक की भाषा परिष्कृत है आवश्यकतानुसार देशज शब्दों का भी उचित प्रयोग किया गया है .प्रस्तुतिकरण बहुत ही आकर्षक और रोचक ढंग से किया गया है. कुछेक अध्याय में विस्तार दिया जाता तो बेहतर होता. भारत को सही रूप में जानने- समझने में यह पुस्तक बहुत उपयोगी सिद्ध होगी. पुस्तक संग्रहणीय और पठनीय है.
पुस्तक: आदिवासी दर्शन और समाज
लेखक: हरिराम मीणा, पृष्ठ:340
प्रकाशक:राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी ,जयपुर.
प्रकाशन वर्ष :2020 ,मूल्य:रु255.
(प्रमोद कुमार झा तीन दशक से अधिक समय तक आकाशवाणी और दूरदर्शन के वरिष्ठ पदों पर कार्यरत रहे. एक चर्चित अनुवादक और हिन्दी, अंग्रेजी, मैथिली के लेखक, आलोचक और कला-संस्कृति-साहित्य पर स्तंभकार हैं।)
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सदा की तरह अच्छी समीक्षा
दोनों को बधाई
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