झारखंड चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के नेतृत्व वाले महागठबंधन ने शानदार जीत दर्ज की है। चुनाव परिणामों के मुताबिक, महागठबंधन 81 विधानसभा सीटों में से 56 सीटों पर आगे है, जबकि बीजेपी नीत NDA केवल 23 सीटों तक ही सीमित रह गई। इस परिणाम ने कई सवाल खड़े किए, खासकर बीजेपी के आक्रामक प्रचार के बावजूद क्यों हेमंत सोरेन की सरकार फिर से सत्ता में लौटने में सफल रही? यहां हम इस जीत के पांच अहम कारणों पर चर्चा करेंगे।
‘आदिवासी’ कार्ड और हमदर्दी लहर
महागठबंधन की जीत में सबसे बड़ा कारक आदिवासी समुदाय का समर्थन था। हेमंत सोरेन और उनकी पार्टी ने हमेशा से आदिवासी हितों की रक्षा के लिए काम किया है। सोरेन की गिरफ्तारी के बाद उनके खिलाफ एक हमदर्दी लहर उठी, जिसने आदिवासी और अन्य समुदायों में उन्हें एक प्रतीक के रूप में स्थापित किया। बीजेपी द्वारा भ्रष्टाचार के आरोप लगाने के बावजूद, यह हमदर्दी लहर विपक्ष के हमलों से अधिक प्रभावी साबित हुई।
बीजेपी की ‘बांग्लादेशी घुसपैठ’ की रणनीति पर नकारात्मक प्रभाव
झारखंड चुनाव में बीजेपी ने चुनावी प्रचार में बांग्लादेशी घुसपैठ और संताल परगना क्षेत्र को ‘मिनी बांग्लादेश’ बनाने का आरोप लगाया। हालांकि यह मुद्दा बीजेपी के प्रचार में प्रमुख था, लेकिन स्थानीय लोगों ने इसे सांप्रदायिक विभाजन की साजिश के रूप में देखा। महागठबंधन ने इस मुद्दे को भुनाते हुए बीजेपी पर सांप्रदायिक राजनीति का आरोप लगाया और इस मुद्दे को विपक्षी दलों के खिलाफ एक सकारात्मक संदेश के रूप में प्रस्तुत किया।
बीजेपी का मुख्यमंत्री चेहरा न होना
बीजेपी ने चुनाव में किसी मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को सामने नहीं रखा, जिसका खमियाजा उसे भुगतना पड़ा। जबकि महागठबंधन ने चुनाव की शुरुआत से ही यह स्पष्ट कर दिया था कि हेमंत सोरेन ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं, बीजेपी के पास किसी स्पष्ट चेहरे की कमी थी, जिससे मतदाता भ्रमित हो गए।
केंद्रीय एजेंसियों के छापे और राजनीतिक आरोप
बीजेपी ने राज्य में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाया था, और इसके लिए ईडी और सीबीआई द्वारा कई छापे और गिरफ्तारी की कार्रवाई की गई। हालांकि, महागठबंधन ने इन कार्रवाइयों को राजनीतिक साजिश और केंद्रीय एजेंसियों की पक्षपाती कार्रवाई के रूप में पेश किया। चुनाव प्रचार में यह दावा किया गया कि बीजेपी सत्ता के लिए विपक्षी दलों को निशाना बना रही है और यह आरोप भी लगाया गया कि एजेंसियां विपक्ष को कमजोर करने के लिए काम कर रही हैं। इसने कई मतदाताओं में बीजेपी के खिलाफ सहानुभूति पैदा की और महागठबंधन के पक्ष में वोटिंग को प्रभावित किया
पलटीमारों का साथ लेने की रणनीति में विफलता
बीजेपी ने चुनाव में कई प्रमुख विपक्षी नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल किया, जिसमें हेमंत सोरेन की बहन-सास, सीता सोरेन भी शामिल थीं। हालांकि, यह रणनीति विपक्षी नेताओं के बीच बीजेपी के खिलाफ बढ़ते विरोध को कमजोर नहीं कर पाई। कुछ पलटीमार नेता भी अपनी सीटों पर हारने के कगार पर थे, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि ये जोड़-तोड़ बीजेपी के लिए फायदेमंद नहीं साबित हुए।
यह भी पढ़ें:-चकरा जाएगा सिर जब जानेंगे देश के कर संग्रह में बिहार का योगदान