Impermanent
कबीरदास कहते हैं –
“यह संसार कागद की पुड़िया, बूंद पड़े घुल जाना है। ये संसार कांट की बाड़ी, उलझ पुलझ मरि जाना है।”
अर्थात ये संसार कागज की एक पुड़िया जैसा है, जो पानी की एक बूंद से घुल जाता है। ये संसार कांटों की ऐसी बगिया है जिसमें सभी जीव उलझ कर समाप्त हो जाते हैं।
“रावन कुंभकरन गए, दुर्जोधन बलवंत।
मार लिय सब काल ने, ऐसा “दया” कहंत।।”
दयाबाई कहती हैं कि रावण और कुंभकर्ण जैसे बलशाली भी मृत्यु से न बच पाए।
बुद्ध संबोधि प्राप्ति के बाद कहा Impermanent
बुद्ध संबोधि प्राप्ति के बाद अन्तिम सत्य को जानकर, गहरे मौन से बाहर आते हुए लोक कल्याण के लिए पाली भाषामें बोले –
“अनिच्चावत संखारा उप्पाद वय धम्मिनो। उपज्जित्वा निरूज्झनति तेसम वूप समो सुख:।।”
अर्थात जो कुछ भी तुम्हें दिखाई देता है वो सब कुछ अनित्य (Impermanent) है, समाप्त हो जाने वाला है, मरणशील है। व्यक्ति, वस्तु, स्थिति, परिस्थिति, घटना आदि सबकुछ अनित्य है। उत्पन्न होकर समाप्त हो जाना ही प्रकृति का धर्म है।
फिर बुद्ध कहते हैं कि लेकिन समाप्त हो जाने के बाद जिसका निरोध हो गया अर्थात जो समूल नष्ट हो गया और अब दोबारा उत्पन्न नहीं होगा। ऐसा सुख कहां!
बुद्ध ने अपने पांचों शिष्यों को बताया, मैंने अनगिनत जन्म लिए और हर जन्म में बुढ़ापे की ओर दौड़ता हुआ शमशान को पहुंचा दिया गया। अब मैंने अपने घर बनाने वाले को देख लिया और बार-बार इस संसार में आने के कारण को भी जान लिया। मैं स्वयं अपना घर बनाता था और चला जाता था लेकिन अब मेरा घर नहीं बनेगा क्योंकि मैंने घर बनाने वाले सामग्री अर्थात पांचो तत्वों को ध्यान से जला दिया इंद्रियों को जला दिया संस्कारों को जला दिया और चित्त को कूट दिया। कोई भी कार्य कारण से होता है इसलिए मैंने जन्म लेने वाले का सारे कारणों को मिटा दिया।
इस असार संसार में प्रेम, केवल देना है। प्रेम लेने की बात की तो दुख हाथ में आयेगा। किसी भी वस्तु, व्यक्ति, स्थिति, बहुमूल्य पदार्थों को भी अपना न मानो।
कुछ मनोरथ पूरे नहीं होने पर दुखद पीड़ा होगी
इस परिवर्तनशील संसार की यह विशेषता है कि कुछ मनोरथ पूरे होने पर खुशी होगी और कुछ मनोरथ पूरे न होने पर बडी जलन वाली दुखद पीड़ा होगी और वो तुम्हारा रुख अध्यात्म की तरफ मोड़ देगी। मिट्टी के ढेले के समान शरीर वाले हम स्वयं को अमर मानकर न चलें। यहां सदा के लिए कोई नहीं, कुछ नहीं ठहर पायेगा (Impermanent) इसलिए आत्मसाक्षात्कार में लग जाएं।
“चलती चक्की देखके दिया कबीरा रोए। दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।।”
काल की चक्की देख कबीर को रुलाई आ गईं। आकाश और धरती दो पाटों के बीच कोई भी बच नहीं सकता।
जीवन का मृत्यु में अंत होता है
कुम्हार के गढ़े हुए मिट्टी के बर्तन का जिस प्रकार अंत हो जाता है। उसी प्रकार प्राणियों के जीवन का मृत्यु में अंत हो जाता है। छोटा हो या बड़ा मूर्ख हो या ज्ञानी, अमीर हो या गरीब सभी मृत्यु के अधीन हैं। यह तो प्रकृति का स्वभाव ही है, ऐसा समझकर प्रज्ञावान शोक नहीं करते।
मेरे अनुभव
मेरे माता पिता नहीं रहे। उनके माता-पिता नहीं रहे। उनके भी माता-पिता नहीं रहे। इसी प्रकार हम भी नहीं रहेंगे। बहुत कम समय के लिए मिला ये जीवन और हम वैर भाव में ही गुजार दें? ये बहुत हल्की बात हुई। यदि “मै” नहीं ” मेरा” नहीं तो कोई कलह भी नहीं। समस्त प्राणिमात्र के साथ केवल और केवल प्रेम हो तो ये जग नश्वर होकर भी सुन्दर है।
“पलभर भी न सोचो और शीघ्र ही उठ खड़े हो। आकाश से सुन्दर रथ आयेगा और हम “मैं”, “मेरे” को समय रहते ही त्यागकर उड़ जायेंगे, जेसे पक्षी शाम को वापस उड़ जाता है। जैसे गाय, भैंस चरने के बाद एक कतार में वापस लौट जाती हैं। यही है ऐश्वर्य।”

(मृदुला दुबे आध्यात्मिक चिंतक और योग साधक हैं)
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