काकभुशुण्डि जी की शिव और राम की भक्ति

प्राचीन काल में काकभुशुण्डि जी ने अयोध्या में एक शूद्र कुल में जन्म लिया। उनका हृदय भगवान शिव की भक्ति में अत्यंत अनुरक्त था, परंतु वे अन्य देवताओं की निंदा करते थे। उनके भीतर शिवभक्ति तो प्रबल थी, परंतु श्रद्धा में समरसता और समता नहीं थी। उन्हीं दिनों अयोध्या में एक ज्ञानी, विनम्र और सहज स्वभाव वाले ब्राह्मण रहते थे, जो शिव के परम उपासक होने के साथ-साथ सभी देवताओं का सम्मान करते थे। उन्होंने काकभुशुण्डि जी को कई बार समझाया कि “सभी देवता एक ही परमात्मा के विभिन्न रूप हैं”, किंतु काकभुशुण्डि जी अपने अहंकार में डूबे रहे। वे जब-जब अन्य देवताओं की स्तुति सुनते, तो क्रोधित हो जाते।

Written By : मृदुला दुबे | Updated on: July 29, 2025 11:37 pm

समय के साथ उनके अंदर अपने ज्ञान और भक्ति का दंभ बढ़ने लगा। एक दिन वे शिवमंदिर में पूजन कर रहे थे, तभी वही ब्राह्मण वहाँ आए। काकभुशुण्डि जी ने उन्हें देखा, परंतु अहंकारवश न तो वे उठे, न ही उन्हें प्रणाम किया। यह दृश्य देखकर भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो उठे और आकाशवाणी के माध्यम से उन्होंने काकभुशुण्डि जी को सर्पयोनि तथा 1000 जन्मों तक विभिन्न योनियों में भटकने का श्राप दे दिया।

श्राप सुनकर काकभुशुण्डि जी भय से काँपने लगे। तब वह ब्राह्मण अत्यंत करुणा से द्रवित होकर शिवजी की स्तुति करने लगे। उनकी यह विनय, रामचरितमानस के उत्तरकांड में वर्णित, अत्यंत मार्मिक और प्रभावशाली है।

(रामचरितमानस, उत्तरकांड)

प्रेम सहित दण्डवत् करके ब्राह्मण शिवजी के सामने हाथ जोड़कर बोले, “हे प्रभो! मेरी यह घोर गति समझकर कृपा कीजिए।”

“नमामीशमीशान निर्वाणरूपं ।
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं।
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं” ॥१॥

भावार्थ:
हे ईश्वर! आप ईशान दिशा के स्वामी, मोक्ष स्वरूप, सर्वव्यापक, ब्रह्म और वेदों के स्वरूप हैं। आप अपने निजस्वरूप में स्थित, निर्गुण, विकल्पहीन, इच्छारहित, चिदाकाश स्वरूप और दिगंबर हैं — मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

भगवान शिव ब्राह्मण की प्रार्थना से द्रवित होकर श्राप का परिमार्जन करते हैं। इसके पश्चात काकभुशुण्डि अनेक योनियों में जन्म लेते हैं, किंतु अंततः उन्हें ब्राह्मण शरीर प्राप्त होता है। वे ज्ञान प्राप्त करने लोमश ऋषि के पास जाते हैं, परंतु वहाँ भी वे तर्क-वितर्क में लिप्त रहते हैं। यह देख लोमश ऋषि उन्हें शाप देते हैं: “जा तू चाण्डाल पक्षी (कौआ) बन जा।”

वे तत्काल कौआ बन जाते हैं। बाद में ऋषि को पश्चाताप होता है और वे उस कौए को राममंत्र तथा इच्छामृत्यु का वरदान देते हैं। अब वह कौआ अपने स्वरूप को भी राममय मानकर पूज्य बन जाता है। यही कौआ आगे चलकर “काकभुशुण्डि” के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जब भी राम लीला हेतु आते हैं तब काकभुशुंडजी को अपने आंगन में पुआ दिखाकर बुलाते हैं। एक बार रामजी कौवे के पीछे पड़ गए तब वह उड़ गया तब राम भी अपने हाथ को पीछे पीछे आकाश में उठाते गए। कौवा घबरा गया और आंखे बंद कर लीं। कुछ समय बाद उसने स्वयं को आंगन में पाया। रामजी और काकभुशुंडजी खूब खेलते हैं और अपने भक्तों को आनंद देते हैं।

एक समय श्रीराम नागपाश में बंधे थे। यह देख गरुड़ जी को उनके दिव्यता पर संदेह हो गया। संदेह निवारण हेतु वे नारद, ब्रह्मा और अंततः महादेव जी के कहने पर काकभुशुण्डि जी के पास पहुँचे। तब काकभुशुण्डि जी ने उन्हें श्रीरामचरित्र सुनाया और उनके सभी संदेहों का समाधान कर दिया।

एक बार पार्वती जी ने भगवान शिव से पूछा —
“हे नाथ! ऐसा कौन-सा सरल उपाय है, जिससे मनुष्य कलियुग में भी पुण्य प्राप्त कर सके?”

तब भगवान शिव ने उत्तर दिया:

श्रीराम राम रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने॥

भावार्थ:
“हे सुन्दर मुखवाली पार्वती! मैं ‘राम-राम-राम’ नाम में रमण करता हूँ, जो मन को अत्यंत आनंदित करता है। ‘राम’ नाम का उच्चारण, विष्णु के सहस्र नामों के फल के समान है।”

निष्कर्ष: पतन से उत्थान की एक प्रेरक कथा:

काकभुशुण्डि जी की जीवनगाथा यह दर्शाती है कि अहंकार भक्ति में सबसे बड़ा बाधक है, परंतु जब विनम्रता और सत्य की राह पकड़ ली जाए, तो पतन से भी उत्थान संभव है। वे आज भी एक कौए के रूप में श्रीरामकथा सुनाते हैं — यह दर्शाता है कि भक्ति में देह नहीं, भावना प्रधान है।

(मृदुला दूबे योग शिक्षक और ध्यात्म की जानकार हैं ।)

ये भी पढ़ें : –सावन माह में जानें भगवान शिव की महिमा

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *