वर्ष 2019 के चुनाव में भाजपा को 46,39 फीसदी वोट मिले थे जो इस बार गिरकर 24.36 फीसदी पहुंच गए। यानी भाजपा को 22 फीसदी का नुकसान हुआ। इतना ही नहीं लद्दाख में भी भाजपा का मत प्रतिशत 2019 की तुलना में 10 फीसदी से अधिक गिर गया। 2019 के चुनाव में लद्दाख सीट जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा थी।
भाजपा नहीं दिला पाई उम्मीदवारों को वोट
कश्मीर में इस बार भाजपा ने अपने उम्मीदवार खड़े नहीं किए थे परंतु उनके समर्थन से चुनाव लड़ रहे अपनी पार्टी व पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के उम्मीदवारों को भी भाजपा वोट नहीं दिला सकी। कश्मीर में आश्चर्यजनक रूप से नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के वोट बैंक में बढ़ोतरी हुई है। हालांकि वोट बैंक बढ़ने का फायदा दोनों पार्टियों के कद्दावर नेताओं को नहीं मिला। महबूबा मुफ्ती (Mehbooba Mufti) व उमर अब्दुल्ला दोनों को हार का सामना करना पड़ा।
उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती दोनों हारे
बारामुला सीट से नेकां के उप प्रधान पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला उ्मीदवार थे। जबकि पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती को अनंतनाग-राजोरी से जीत हासिल नहीं कर सकीं। नेकां के लिए संतोषजनक बात यह है कि उसके खाते में दो सांसद हैं। अनंतनाग-राजोरी से मियां अल्ताफ और श्रीनगर से आगा सईद रुहल्ला ने नेकां प्रत्याशी के रूप में जीत दर्ज की। बारामुला से निर्दलीय प्रत्याशी इंजीनियर रशीद ने जीत दर्ज की है। इस चुनाव में इंजीनियर रशीद की जीत चौंकाने वाली है तो महबूबा की पराजय उनके राजनीतिक भविष्य पर एक सवालिया निशान खड़ा कर रही है।
क्यों हारे उमर अब्दुल्ला
उमर अब्दुल्ला (Omar Abdullah) की सबसे बड़ी भूल थी अपनी पारंपरिक श्रीनगर सीट को छोड़ना। यह सीट उनकी पार्टी के पास लंबे समय से थी। 2019 में यहां से उनके वालिद डॉ, फारूक अब्दुल्ला (Farooq Abdullah) सांसद चुने गए थे। इसलिए माना जा रहा था कि इस बार उमर इस सीट पर उनकी परंपरा का निर्वाह करेंगे। लेकिन जैसे ही उमर ने बारामुला जाने का फैसला किया, भाजपा ने पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के सज्जाद लोन की पीठ पर हाथ रख दिया। उधर निर्दलीय इंजीनियर रशीद (Engineer Rashid) के बेटों ने उनके प्रचार की कमान संभाल ली। माना जा रहा है कि उमर और लोन ओवर कॉन्फिडेंस का शिकार हो गए। जबकि रशीद (Engineer Rashid) के बेटे अबरार रशीद (Abrar Rashid) भाई के साथ मिलकर युवाओं को यह समझाने में सफल रहे कि स्थानीय भावनाओं को जेल में बंद उनके पिता ही संसद में सशक्त आवाज के रूप में उठा सकते हैं। सारा खेल यहीं पलट गया।
महबूबा के पास खोने को कुछ नहीं था
महबूबा मुफ्ती (Mehbooba Mufti) के नेतृत्ववाली पीडीपी इंडिया ब्लॉक में नेकां के साथ साझीदार है। परंतु ऐन चुनाव से पहले जिस प्रकार उमर ने अकेले लड़ने का एलान कर दिया, उससे महबूबा को झटका लगा। मरता क्या न करता, अस्तित्व का सवाल था।आनन-फानन में महबूबा ने अपने लिए अनंतनाग -राजोरी की सीट को चुना। महबूबा और उनके समर्थकों का मानना था कि दक्षिण कश्मीर में उनकी पैठ ठीकठाक है। परंतु नेकां के मियां अल्ताफ की उम्मीदवारी उन पर भारी पड़ गई। मुफ्ती मोहम्मद सईद (Mufti Mohammad Sayeed) के निधन के बाद डॉ. फारूक अब्दुल्ला (Dr.Farooq Abdullah के साये में राजनीति करने वाली महबूबा चुनावी तासीर को समझ कर भी अंजान बनी रहीं। समर्थकों के बीच सकारात्मक संदेश देने के उद्देश्य से उनका चुनाव लड़ने का फैसला, उन्हीं पर भारी पड़ा। वह यहां से हारीं तो उनकी पार्टी का युवा चेहरा वहीद पर्रा श्रीनगर से पराजित हो गए। बारामुला में पीडीपी के फैयाज अहमद मीर भी हारकर रेस से बाहर हो गए। यहां इस बात को ध्यान में रखना होगा कि पीडीपी के पास 2019 में भी कोई सांसद नहीं था। इसलिए उनकी भविष्य की रणनीति पर नजर रखने की जरूरत है।
लद्दाख में लेह पर भारी पड़ा कारगिल
लद्दाख संसदीय सीट पर भाजपा का आंतरिक विरोध उनके प्रत्याशी ताशी ग्यालसन को भारी पड़ा। निवर्तमान सांसद शेरिंग नामग्याल का टिकट कटने से वह ऊपरी तौर पर भले ही सक्रिय नजर आए हों परंतु चुनाव परिणाम हकीकत को बयान कर रहे हैं। लेकिन यह एक मात्र कारण नहीं है। सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक का आंदोलन और उसकी जिस प्रकार से केंद्र सरकार ने अनदेखी की उसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा। यह सीट इंडिया गठबंधन में कांग्रेस के खाते में थी। कांग्रेस उम्मीदवार सेरिंग नामग्याल को मैदान में उतारा, परंतु गठबंधन की साझीधार नेकां की स्थानीय इकाई को वह रास नहीं आए। कारगिल की नेकां इकाई ने इस्तीफा दे दिया। बात यहीं नहीं खत्म हुई बल्कि निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में हाजी हनीफा मैदान में उतर गए। चुनाव लेह बनाम शिया मुसलमानों के गढ़ कारगिल की राजनीतिक लड़ाई में फंस गया। बड़ी हिस्सेदारी के कारण हाजी हनीफा ने यहां से भाजपा को हैट्रिक बनाने से रोक दिया।