महर्षि रमण का मृत्यु का अनुभव
सन् 1896 में, जब वे केवल 16 वर्ष के थे, तो उन्हें अचानक एक तीव्र अनुभव हुआ। बिना किसी बीमारी के उन्हें लगा कि अभी उनकी मृत्यु होने वाली है। वे अकेले एक कमरे में लेट गए और मन ही मन यह प्रक्रिया देखने लगे –
“शरीर मर जाएगा, पर मैं कौन हूँ?
क्या यह ‘मैं’ केवल शरीर हूँ?
नहीं। शरीर के मरने पर भी ‘मैं’ बना रहता हूँ।”
इस अनुभव ने उनकी चेतना को पूरी तरह बदल दिया। उन्हें अहसास हुआ कि सच्चा ‘मैं’ आत्मा है, जो कभी नहीं मरता। यह वही क्षण था जब उन्हें आत्मसाक्षात्कार (Self-Realization) हुआ।
अरुणाचल की ओर प्रस्थान:
इस अनुभव के बाद उन्होंने घर-परिवार, पढ़ाई और सामान्य जीवन त्याग दिया। वे सीधे अरुणाचल पर्वत (तिरुवन्नामलई) पहुँचे, जिसे वे दिव्य शिवस्वरूप मानते थे। वहीं पर उन्होंने गहन तप किया और अंततः जीवनभर वहीं रहे।
आश्रम का निर्माण :
धीरे-धीरे उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। भारत और विदेशों से लोग उनसे मिलने आने लगे। उनके चारों ओर एक आश्रम बन गया – रामणाश्रम। यह आज भी तमिलनाडु के तिरुवन्नामलई में स्थित है। महर्षि रमण की शिक्षा अत्यंत सरल लेकिन गहन थी। उन्होंने किसी धर्म, मत या परंपरा पर जोर नहीं दिया।
उनके मुख्य उपदेश थे:
आत्म-विचार (Self-Enquiry – “मैं कौन हूँ?”)
उनका कहना था कि हर साधक को अपने भीतर जाकर यह प्रश्न करना चाहिए – “मैं कौन हूँ?”
जब तक साधक इस प्रश्न का उत्तर नहीं पा लेता, तब तक मन के विकार बने रहते हैं।
उत्तर मिलेगा – “मैं न शरीर हूँ, न मन हूँ। मैं शुद्ध आत्मा हूँ।”
मौन ही सर्वोच्च उपदेश है। वे कहते थे कि परम सत्य का बोध शब्दों से नहीं, मौन से होता है।
उनके आश्रम में कई बार वे घंटों मौन रहते और लोग उनकी उपस्थिति से ही शांति का अनुभव करते।
वे पशु-पक्षियों से भी परिवार की तरह व्यवहार करते। उनका कहना था कि आत्मा सभी में समान है, इसलिए किसी जीव से भय या घृणा क्यों? वे मानते थे कि अरुणाचल पर्वत स्वयं शिव का रूप है और वहाँ रहकर साधना करना मोक्षदायी है।
महर्षि का अंतिम समय (मृत्यु/महासमाधि)
1949 में उनके शरीर में कैंसर की बीमारी उत्पन्न हुई। हाथ पर बड़ा घाव बन गया। लाखों भक्त चिंतित हो उठे। डॉक्टरों ने ऑपरेशन भी किया, परंतु रोग बढ़ता गया।
महर्षि ने शांति से कहा –
“यह शरीर नश्वर है, इसे जाने दो। तुम लोग आत्मा को क्यों नहीं देखते, जो अमर है?”
14 अप्रैल 1950 की रात, जब वे ध्यानावस्था में बैठे थे, उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। उसी क्षण अरुणाचल आकाश में एक दिव्य प्रकाश-रेखा (ज्योति) दिखाई दी, जिसे दूर-दूर तक लोगों ने देखा। भक्तों ने इसे महर्षि का महासमाधि प्रवेश माना।
आज भी रामणाश्रम दुनिया भर के साधकों का तीर्थ है। उनकी पुस्तकों जैसे “नान यार?” (मैं कौन हूँ?), उपदेश सार, सत-दर्शन इत्यादि में उनके विचार संकलित हैं। महर्षि का जीवन यह सिखाता है कि – मोक्ष या आत्मसाक्षात्कार के लिए न कठोर कर्मकांड चाहिए, न कठिन योगासन।
मृत्यु कोई अंत नहीं, बल्कि सत्य के निकट पहुँचने का अवसर है।
इस प्रकार, महर्षि रमण का जीवन हमें सिखाता है कि सच्ची आध्यात्मिकता बाहर की खोज में नहीं, भीतर उतरने में है।
अरुणाचल पञ्चरत्नम् द्वारा महर्षि ने अपनी कृतज्ञता व्यक्त की।
(श्लोक 1)
अर्पितं तव चरणे नरनागगन्धर्वाद्यैरपि सुदुर्लभम्।
आत्मविद्याविलासं हृदि मेऽवतु तव सुगुरु दर्शनम्॥
भावार्थ:
हे अरुणाचल! आपके चरणों में अर्पित यह आत्मविद्या का विलास — देवताओं, नागों और गन्धर्वों को भी दुर्लभ है।
हे सच्चे गुरु! आपका पावन दर्शन मेरे हृदय की रक्षा करे।
(श्लोक 2)
त्यक्त्वा विषयं भोगं निखिलं ज्ञात्वा स्वं रिपुमहं भावम्।
भक्त्या त्वाम् अरुणाचल परमनित्यं पश्याम्यहमात्मानम्॥
भावार्थ:
जब मैं विषय-भोगों को त्यागकर अपने भीतर के शत्रु — अहंकार को पहचान लेता हूँ,
तब हे अरुणाचल! भक्ति द्वारा मैं आपको, जो परम नित्य आत्मस्वरूप हैं, अपने भीतर प्रत्यक्ष देखता हूँ।
(श्लोक 3)
अन्विष्य आत्मनि आत्मानं पश्यन् अहमिति विलीयते।
तत्त्वं ततः प्रकाशं अरुणाचल त्वयि मे मनो निलीयताम्॥
भावार्थ:
आत्मा को आत्मा में खोजते हुए, “मैं” का विचार विलीन हो जाता है।
उसके बाद सत्य का प्रकाश प्रकट होता है।
हे अरुणाचल! मेरा मन सदा आपमें ही लीन हो जाए।
(श्लोक 4)
कृत्स्नं जगदिदं चित्ते दृश्यते स्वचिदात्मनि।
अत्रैव विलयम् यातु अरुणाचल त्वयि अहं कदाचित्॥
भावार्थ:
यह सम्पूर्ण जगत चित्त में ही देखा जाता है, और चित्त स्वयं आत्मचैतन्य में स्थित है।
अतः हे अरुणाचल! यह अहंकार और समस्त जगत उसी में लीन हो जाएँ।
(श्लोक 5)
चित्तं अहं चित्तजातं नाशं यातु तव पदे।
सत्यम् सुखं परं पूर्णं अरुणाचल त्वमेव च॥
भावार्थ:
चित्त और उससे उत्पन्न अहंकार आपके चरणों में नष्ट हो जाए।
क्योंकि आप ही सत्य, सुख, परम और पूर्ण स्वरूप हैं —
हे अरुणाचल! आप ही सबकुछ हैं।
इन पाँच रत्नों के श्लोकों में महर्षि रमण का आत्मानुभव सघन भाव से झलकता है। यह साधक को सीधा आत्मचिंतन, अहंकार-विलय और परम शांति की ओर ले जाते हैं।
(मृदुला दूबे योग शिक्षक और अध्यात्म की जानकार हैं ।)
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