मत्स्येन्द्रनाथ — हठयोग के पुनर्जागरणकर्ता
हिंदू और बौद्ध — दोनों ही परंपराओं में वे पूजनीय हैं; बौद्ध मत के अनुसार उन्हें अवलोकितेश्वर का अवतार भी माना गया है। मत्स्येन्द्रनाथ योगमार्ग के प्रचार के लिए भारतभर में भ्रमण करते रहते थे। वे केवल उन्हीं को शिक्षा देते थे जो भीतर से साधना और समझ के लिए तैयार हों।
एक बार वे एक गाँव में पहुँचे। वहाँ एक गृहस्वामी की पत्नी ने उन्हें श्रद्धा से भोजन कराया और निवेदन किया —“भगवन, मुझे संतान का आशीर्वाद दीजिए।” मत्स्येन्द्रनाथ ने करुणापूर्वक उसे एक पवित्र अग्नि की राख दी और कहा — “इसे श्रद्धा से ग्रहण करो, यह तुम्हारे जीवन में प्रकाश लाएगी।” स्त्री ने वैसा ही किया, और कुछ समय बाद एक तेजस्वी बालक को जन्म दिया।
वर्षों बाद जब मत्स्येन्द्रनाथ पुनः उसी गाँव में लौटे, उन्होंने घर के बाहर उस बालक को देखा और कहा — “जाओ, अपनी माँ को बुला लाओ।” जब स्त्री आई, मत्स्येन्द्रनाथ ने मुस्कराकर कहा —“क्या तुम मुझे पहचानती हो?”
स्त्री ने विनम्रता से उत्तर दिया — “हाँ, प्रभु, मुझे स्मरण है।”
तब मत्स्येन्द्रनाथ ने बालक की ओर संकेत करते हुए कहा —“यह मेरा पुत्र है; मैं इसे लेने आया हूँ।” स्त्री ने मौन सहमति से अपने पुत्र को उनके सुपुर्द कर दिया।
मत्स्येन्द्रनाथ ने बालक का नाम रखा — ‘गोरक्ष’, अर्थात् प्रकाश का रक्षक। यही बालक आगे चलकर गोरखनाथ या गोरक्षनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ — भारत के इतिहास के महानतम योगियों में जिनका नाम आदर से लिया जाता है।
तमिलनाडु की सिद्धर परंपरा में मत्स्येन्द्रनाथ को 18 प्राचीन सिद्धरों में गिना गया है, जहाँ उन्हें मचामुनि के नाम से जाना जाता है। मदुरै के निकट थिरुपरनकुंड्रम स्थित काशी विश्वनाथ मंदिर में उनकी जीव-समाधि आज भी पूजनीय है।
नेपाल में भी मत्स्येन्द्रनाथ अत्यंत श्रद्धा से पूजे जाते हैं। काठमांडू घाटी में प्रतिवर्ष उनका भव्य रथ उत्सव मनाया जाता है, जो बौद्ध और हिंदू परंपराओं के सामंजस्य का प्रतीक है। यह पर्व आज भी दुनिया के सबसे बड़े रथ उत्सवों में से एक माना जाता है।
मत्स्येन्द्रनाथ और गोरखनाथ का संवाद — योग की जागृति का क्षण
जब मत्स्येन्द्रनाथ अपने शिष्य गोरक्षनाथ को साधना का मार्ग दिखा रहे थे, तब एक दिन उन्होंने देखा कि गोरक्ष अभी भी संसार के आकर्षणों से जूझ रहा है। गुरु ने मुस्कराकर पूछा —“गोरक्ष, बताओ — योग किसे कहते हैं?”
गोरक्ष ने उत्तर दिया —“गुरुदेव, योग का अर्थ है — शरीर और मन का संयम, इंद्रियों की निवृत्ति।”
मत्स्येन्द्रनाथ ने सिर हिलाते हुए कहा —“संयम तो अच्छा है, पर योग केवल इंद्रियों को रोकना नहीं, उन्हें पार करना है। जैसे दीपक की लौ हवा से नहीं डगमगाती — वैसा मन जब भीतर स्थिर हो जाए, वही योग है।”
फिर उन्होंने कहा —“गोरक्ष, संसार से भागने वाला योगी नहीं, संसार में रहते हुए अछूता रहने वाला योगी बनो।” यह वाक्य गोरक्षनाथ के जीवन का स्थायी मंत्र बन गया।
कहा जाता है, उसी क्षण गोरक्षनाथ के भीतर गहरी आत्मिक जागृति हुई। उन्होंने अनुभव किया — “गुरु केवल शरीर नहीं, चेतना का दर्पण हैं।”
उन्होंने गुरु के चरणों में प्रणाम किया और कहा —“गुरुदेव, अब मैं समझ गया — योग वह नहीं जो बाहर होता है; योग तो वह है जहाँ भीतर का द्वंद्व समाप्त हो जाता है।”
मत्स्येन्द्रनाथ ने प्रसन्न होकर कहा— “आज से तू केवल मेरा शिष्य नहीं, ज्ञान का रक्षक है — गोरक्ष, प्रकाश का सच्चा संरक्षक।”
दार्शनिक व्याख्या — योग : भीतर की एकता का विज्ञान
यह संवाद केवल गुरु–शिष्य की कथा नहीं, चेतना के विकास का प्रतीक है। मत्स्येन्द्र वह सिद्ध पुरुष हैं जिन्होंने अद्वैत — “जहाँ कोई दो नहीं” — का अनुभव किया,और गोरक्ष वह साधक हैं जो उसी एकता की ओर अग्रसर है।
गुरु का वचन — “योग केवल इंद्रियों को रोकना नहीं, उन्हें पार करना है”
बताता है कि योग का सार संयम नहीं, समत्व है। संयम में दबाव है, समत्व में जागरूकता। जो व्यक्ति अपने भीतर की हर लहर को बिना भागे, बिना दबाए — साक्षी होकर देख सकता है, वही सच्चा योगी है।
गुरु का दूसरा वचन — “संसार में रहते हुए अछूता रहने वाला योगी बनो”
आधुनिक जीवन के लिए गहरा संदेश देता है। योग गुफाओं में नहीं, घर-परिवार और संबंधों के बीच भी संभव है — यदि भीतर जागरूकता बनी रहे।
गोरक्ष का उत्तर — “योग वह है जहाँ भीतर का द्वंद्व समाप्त हो जाता है” योग के चरम को प्रकट करता है। जब ‘मैं’ और ‘मेरा’ मिट जाते हैं, जब सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान समान हो जाते हैं — तब भीतर समत्व की शांति उतरती है। वही अवस्था बुद्धत्व है, वही शिवत्व — वही योग।
आधुनिक साधक के लिए संदेश:
आज जब मनुष्य बाहरी उपलब्धियों के पीछे भागते हुए भीतर की निस्तब्धता खो चुका है,
तब मत्स्येन्द्र–गोरक्ष का संवाद हमें स्मरण कराता है —
योग कोई क्रिया नहीं, यह स्थिति है। यह शरीर का नहीं, चेतना का विज्ञान है। यह भागने का नहीं, जागरूकता से जीने का अभ्यास है।
जब साधक अपने भीतर के ‘गोरक्ष’ को जागृत कर लेता है, तो वह स्वयं प्रकाश का रक्षक बन जाता है। फिर उसके लिए यह संसार तपोभूमि बन जाता है — और जीवन स्वयं साधना।

[ मृदुला दुबे योग शिक्षक और अध्यात्म की जानकार हैं।]
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