माँ के बारे में कवियों ने कहा है —
“ममता ऐसी बिनु मोल की, न तौली जाए तोल।
माँ के आँचल में समाई, सृष्टि की हर खोल॥”
माँ सीता ने सिखाया कि ममता केवल कोमलता नहीं,
वह एक संस्कार है जो अग्नि में भी पुष्पित होता है।
अग्नि-परीक्षा के समय उन्होंने संसार को बताया —
कि सच्ची नारी वह है जो धर्म के लिए स्वयं अग्नि बन जाए।
तुलसीदास जी ने लिखा —
“सीता राम चरित अति पावन,
साधारन नहिं नारी, सुषीला सावन॥”
अर्थ — सीता केवल स्त्री नहीं थीं,
वह मर्यादा, धैर्य और करुणा की जीवंत प्रतिमा थीं।
वाल्मीकि आश्रम की माँ सीता ने लव-कुश को धर्म और संयम का पाठ पढ़ाया —
और कहा,
“मैंने राम को नहीं छोड़ा, मैंने क्रोध को छोड़ा।”
यही है माँ की शक्ति — जो अन्याय के विरुद्ध भी करुणा को जीवित रखती है।
माता यशोदा — प्रेम जो बाँध भी ले और मुक्त भी करे:
जब हम माँ की ममता को निराकार देखते हैं,
तो उसमें यशोदा का नाम अनायास आ जाता है।
कृष्ण को बाल्यकाल में बाँधने वाली वही यशोदा थीं,
जो जानती थीं कि यह बालक केवल उनका नहीं,
स्वयं ईश्वर का अंश है।
कृष्ण की मुस्कान में वह संसार देखती थीं,
और उसकी शरारतों में जीवन का माधुर्य।
“यशोदा तिन्ह के अँचरा, बंध्यो जो जगत अधीश।
ममता ऐसी माप में, बँधे ब्रह्म समेश॥”
माँ यशोदा ने दिखाया कि ममता में बंधन नहीं होता,
वह प्रेम की वह डोरी है जो ईश्वर को भी सहज बना देती है।
माता कौशल्या — संयम और विश्वास की प्रतिमा:
कौशल्या की ममता — मौन और संयम की ममता थी।
जब राम वनवास को चले,
तो उनके आँसू नदी बन सकते थे, पर वे रुके रहे —
क्योंकि उन्हें पता था,
कि धर्म की राह पर चलना ही पुत्र का सच्चा कर्तव्य है।
“कौशल्या के मन बस्यो, राम नाम सुखधाम।
त्याग ममता कर दीन्हि, धरि विश्वास न राम॥”
“कौशल्या ने संसार को यह सिखाया
कि सच्ची माँ पुत्र की सफलता में नहीं,
उसके सत्य में जीती है”।
कवियों की दृष्टि में माँ:
कबीर ने कहा —
“माई ममता अमृत समान,
जिह्वा बसै तिहि नाम भगवान॥”
सूरदास ने यशोदा के वात्सल्य को यूँ गाया :-
“मैया मोरी, मैं नहिं माखन खायो।”
इस बाल-क्रीड़ा में केवल बालक नहीं बोल रहा,
बोल रहा है सृष्टि का सबसे कोमल भाव — ममता।
तुलसीदास ने लिखा :-
“मातु समान हित कर न कोऊ,
बिपति काल जो रखे न डोऊ।”
माँ वह शक्ति है,
जो संकट में भी न डगमगाए —
जिसकी छाया में संसार पनपे और मन स्थिर हो।
माँ के भाव में तीन ज्योतियाँ:
सीता — धर्म की ज्वाला
यशोदा — प्रेम की डोरी
कौशल्या — विश्वास की धरा
तीनों मिलकर बताती हैं कि —
माँ केवल जननी नहीं, संस्कार की सर्जनी है।
वह हर समय मौन में, आशीष में, और प्रार्थना में जीवित रहती है।
माँ का अर्थ:
माँ वह है जो क्रोध नहीं, करुणा देती है,
जो भय नहीं, विश्वास देती है,
और जो जन्म नहीं, जीवन का अर्थ देती है।
“माँ के चरण जहाँ टिके,
वहाँ मिटे सब शोक”।

(मृदुला दूबे योग शिक्षक और अध्यात्म की जानकार हैं।)
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