कवि और कविता
मैं मर गया
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मैं मर गया
जी हां मैं मर गया, उस दिन,
जिस दिन मैनें सड़क पर कुछ गुण्डों को एक असहाय लड़की के शरीर पर हाथ डालते देखा
और मैं चुप रहा।
मैं मर गया, उस दिन,
जिस दिन मैनें एक ग़रीब को कचरे से जूठन खोज कर बासी खाना खाते देखा और मैनें बर्गर ख़रीदा।
मैं मर गया, उस दिन,
जिस दिन एक गाड़ी नें एक इंसान को कुचला और मैं मुंह मोड़ कर ऑफिस चला गया।
मैं मर गया, उस दिन,
जिस दिन चंद दहशतगर्दों नें मेरे शहर में गोलियों से कई बेगुनाहों को भून डाला था
और मैं घर आ कर टीवी देखने लगा।
मैं उस दिन भी मरा था
जब आतंकियों ने मेरे देश के जांबाज़ सिपाहियों को नींन्द में ही मार डाला था
और मैं शांति वार्ता की बात कर रहा था।
मैं मर गया, उस दिन,
जिस दिन चारा घोटाला हुआ,
जिस दिन आपातकाल घोषित हुआ,
जिस दिन सिखों को घर से निकाल निकाल के भूना गया था,
जिस दिन मेरे ही देश में चंद देशद्रोहियों नें हिंदुस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाये,
जिस दिन सेना से उसकी बहादुरी का सबूत माँगा गया।
मैं उस दिन भी मरा था जिस दिन रूस और यूक्रेन में युद्ध शुरू हुआ और अभी तक चल रहा है और लाखों लोग मारे गये, लाखों बेघर हो गये।
मैं मर गया उस दिन जिस दिन कुछ आतंकियों नें इस्राइल में निरीह लोगों को मार डाला और हमास और इस्राइल में युद्ध शुरू हो गया।
और लाखों निरीह मारे गये और मारे जा रहे रहे हैं।
मैं कुछ दिन पहले भी मरा था जब कोलकाता के एक हॉस्पिटल में एक महिला डाक्टर का बलात्कार और क़त्ल कर दिया गया।
मैं हर उस दिन मरता हूँ जिस दिन कहीं भी, किसी के साथ भी ,किसी भी प्रकार का अमानवीय व्यवहार होता है और मैं मूक असहाय देखता रहता हूँ।
क्या करूं,
मैं एक आम आदमीं हूँ, रोज़ मरता हूँ।
मरा मरा ही जीता हूँ।
या यूँ कहो, जीते जी मरता रहता हूँ।
और मुझे मारने वाले गुंडे, आतंकी, नेता, घोटालेबाज़ बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं में रहते हुए, लंबी बड़ी गाड़ियों में मेरे पास से गुज़र जाते हैं
और पांच सितारा होटलों में शराब और शबाब के साथ रंगीन रात बिताते हैं।
और हरपल, मुझे मेरे मरे हुए होने का एहसास दिलाते हैं।
तो , मैं मर ही तो गया ना !!!!!
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-सुभाष सहगल
( सुभाष सहगल का नाम मुख्य रूप से भारतीय फिल्म उद्योग से जुड़ा है। कई फिल्मों के लिए काम करने के अलावा इनकी कविताओं की
अब तक 22 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं ।)
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कवि और कविता
ख़ुद पर विश्वास
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ख़ुद पर विश्वास, क्यों नहीं करते ?
जो करना है, आज क्यों नहीं करते ?
छूना चाहते हो आकाश यदि,
तो फिर तुम,प्रयास क्यों नहीं करते ?
कुछ भी नहीं , इस जग में असंभव।
इस बात पर, विश्वास क्यों नहीं करते ?
प्राप्त होगा निश्चय ही, जो तुमको पाना।
फिर पाने की, आस क्यों नहीं करते ?
माना ऊंचा है, बहुत सफलता का शिखर ।
तुम चढ़ने का, प्रयास क्यों नहीं करते ?
होगा वही ,जो तुम करना चाहो ।
फिर करने का विचार, क्यों नहीं करते ?
मिल जाता है सब, जो मांगो प्रभु से ।
उस प्रभु से अरदास , क्यों नहीं करते ?
ख़ुद पर विश्वास, क्यों नहीं करते ?
– प्रगति दत्त, अलीगढ़
( प्रगति दत्त की दो पुस्तकें प्रकाशित हैं और कई पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं।)
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तिरस्कृत जीवन
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तिरस्कार मिला इतना के प्रेम पर भी संदेह होने लगा
अपनापन देख के आडंबर सा लगने लगा
बोल दे कोई प्रेम से तो उसमें स्वार्थ दिखने लगा
और न बोले कोई तो वही सही लगने लगा
लज्जित हो जाती हूँ मैं किसी के प्रेम भरे बोल से
सुख के भेष में दुःख मुखौटा लगाए लगने लगा
अभिलाषा समाप्त हो गयी जीवन भी अभिशप्त लगने लगा
जीवन से मरण तक का खेल अब ये हृदय समझने लगा
– ऋचा धर, अमृतसर
गृहिणी हैं। कविताएं ( साझा संग्रह-जीवन ज्योति और मुहब्बतें) लुधियाना में प्रकाशित हैं। काव्य कला विरासत में पिता से मिली है।
कवि और कविता
ऐसे भाव हमारे लिख दो
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शोला-शबनम चाॅंद-सितारे
गुल-गुलशन नदिया के धारे
कब तक इन पर कलम चलेगी
इन्कलाब के नारे लिखे दो, ऐसे भाव हमारे लिख दो
मिठबोलों के झूठे वादे
कथनी-करनी अलग इरादे
करें सियासत झूठी उनके
काले चिट्ठे सारे लिख दो।
इन्कलाब के नारे लिखे दो,ऐसे भाव हमारे लिख दो,,,,,,
बिगुल बज गया नहीं हटेंगे
धर्म-जाति में नहीं बटेंगे
शंख फूंक दो मिलकर आओ
समता के हलकारे लिखे दो
इन्कलाब के नारे लिखे दो, ऐसे भाव हमारे लिख दो,,,,,,
भीख तुम्हारी नहीं चाहिए
सीख तुम्हारी नहीं चाहिए
बेरोजगार किया पीढ़ी को
पीढ़ा-ऑंसू खारे लिख दो
इन्कलाब के नारे लिखे दो,ऐसे भाव हमारे लिख दो,,,,,,
देश की दौलत माल ख़ज़ाना
धन्ना सेठों में बटजाना
चापलूस इन मक्कारों के
सारे बारे-न्यारे लिख दो
इन्कलाब के नारे लिखे दो,ऐसे भाव हमारे लिख दो,,,,,,
फिर से एक सभी हो जाओ
इनको इनकी सजा दिलाओ
संविधान का ‘असर’ मिटे ना
क्रान्ति गीत चटकारे लिख दो
इन्कलाब के नारे लिखे दो,ऐसे भाव हमारे लिख दो,,,,,
–पन्ना लाल ‘असर’, झाॅंसी
( वरिष्ठ साहित्यकार , वर्ष 1982 में प्रधानमंत्री द्वारा सम्मानित उ०प्र०हिन्दी संस्थान लखनऊ से वर्ष 2019लोकभूषण सम्मान, उर्दू ,हिन्दी , बुन्देली में 21 पुस्तके प्रकाशित)
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‘शब्दों का जादूगर’
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कवि है शब्दों का जादूगर
कविता रहती है सदा अमर।
कवि का नहीं होता कोई धरम
वह कभी गरम और कभी नरम।
कुछ लोग कहें उसे बेशरम
पर उसे न कोई खुशी या गम।
जब चाहें शब्दों से लेता खेल
उनका कुछ करके तालमेल।
रचनाओं की बुनकर अमर बेल
सबके आगे वह उन्हें देता ठेल।
–शन्नो अग्रवाल
(आस्ट्रेलिया में रहती हैं। दो काव्य संग्रह ‘रोशनदान’ और ‘ओस’ नाम से प्रकाशित । दो और प्रकाशन की प्रतीक्षा में )
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