संत ज्ञानेश्वर बचपन से ही उन्मुख हो गए आध्यात्मिक मार्ग की ओर

संत ज्ञानेश्वर का जन्म महाराष्ट्र के आपेगाँव (अब पैठण) में हुआ। उनके पिता विठ्ठलपंत ब्राह्मण परिवार से थे, जिन्होंने संन्यास लिया था, परंतु बाद में गृहस्थ जीवन में लौट आए। सामाजिक रीति-रिवाजों के कारण ज्ञानेश्वर और उनके तीनों भाई-बहन (निवृत्तिनाथ, सोपानदेव, मुक्ताबाई) को समाज ने बहिष्कृत कर दिया। इन्हीं कठिन परिस्थितियों ने उन्हें बचपन से ही आध्यात्मिक मार्ग की ओर प्रेरित किया।

Written By : मृदुला दुबे | Updated on: September 24, 2025 12:35 am

प्रमुख ग्रंथ और योगदान

1. ज्ञानेश्वरी (भावार्थ दीपिका)

यह उनकी महानतम कृति है, जो भगवद्गीता का मराठी भाषा में भावार्थ है। ज्ञानेश्वरी भक्ति, ज्ञान और कर्म का अद्भुत संगम है।

2. अमृतानुभव:

इसमें उन्होंने अद्वैत वेदांत और योग का रहस्य सरल ढंग से समझाया।

यह ग्रंथ आत्मज्ञान और ईश्वर की एकता को प्रतिपादित करता है।

दर्शन और विचार :

वे मानते थे कि ईश्वर तक पहुँचने का सबसे सरल मार्ग प्रेम और भक्ति है।

समानता का संदेश :

उन्होंने जाति-पाँति, ऊँच-नीच के भेदभाव का विरोध किया और हर व्यक्ति को ईश्वर का अंश माना। ज्ञानेश्वर योग साधना और ध्यान को आत्मा की मुक्ति का साधन बताते हैं। उनका जीवन दूसरों के दुःख को कम करने की करुणा से भरा था।

“आत्मा हा परमात्मा, अनंताशी एकरूप।
स्वभावेचि चैतन्य, तेंचि मोक्ष स्वरूप॥”

अर्थ : आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। आत्मा का स्वभाव ही चैतन्य है, और वही मुक्ति का वास्तविक स्वरूप है।

“जो जे वांछील, तो ते लाहील।
प्रत्येच्या मनीचे, जाणे देव॥”

अर्थ: जो भी मनुष्य सच्चे दिल से जो चाहता है, उसे वही प्राप्त होता है, क्योंकि ईश्वर प्रत्येक हृदय की भावना को जानता है।

“अवघा रंग एक झाला,
विविध रंगांची झाली छटा।
ज्ञानदेव म्हणे, सर्व ठायीं,
विट्ठल विट्ठल दिसे चोखटा॥”

अर्थ: संपूर्ण सृष्टि एक ही परमात्मा के रंग से रँगी है। तरह-तरह के रूप और रंग उसी से निकले हैं। संत ज्ञानेश्वर कहते हैं—जहाँ देखो वहाँ केवल विट्ठल ही दिखाई देते हैं।

बहुत प्रसिद्ध पंक्ति)

“जो जीवा तोचि देव,
कळेना आम्हां भेदभाव॥”

अर्थ: जो जीव है वही देव है। जीव और ईश्वर अलग नहीं हैं। भेदभाव की यह दृष्टि अज्ञान से उत्पन्न होती है।

अल्पायु में महान कार्य: संत ज्ञानेश्वर ने मात्र 21 वर्ष की अल्पायु में ही अद्वितीय ग्रंथ रचे और महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन को नई दिशा दी। 21 वर्ष की आयु में उन्होंने आलंदी (पुणे) में संजीवन समाधि ली।

ज्ञानेश्वर का जीवन हमें सिखाता है कि परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी कठिन क्यों न हों, सत्य, करुणा और भक्ति के मार्ग पर चलकर मानवता की सेवा की जा सकती है। उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने 13वीं शताब्दी में थे।

संत ज्ञानेश्वर वास्तव में संत परंपरा के दीपस्तंभ हैं, जिनकी वाणी और दर्शन हमें भक्ति, ज्ञान और आत्मशांति की राह दिखाते हैं।

(मृदुला दूबे योग शिक्षक और अध्यात्म की जानकार हैं।)

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