संत पलटू साहब : अंत: यात्रा और मन के शुद्धीकरण को बताया था ईश्वर प्राप्ति का रास्ता

भारत की संत परंपरा वह अनंत सरिता है जिसमें कबीर, रैदास, दादू, नानक और नामदेव जैसे संतों ने समाज को आत्मज्ञान की दिशा दी। इसी परंपरा में 18वीं शताब्दी में अवतरित हुए — संत पलटू साहब, जिनकी सहज, सजीव और आत्मा को झकझोर देने वाली वाणी आज भी भीतर के दीपक को प्रज्वलित करती है। वे न किसी पंथ के प्रचारक थे, न किसी संप्रदाय के विरोधी — वे तो केवल “भीतर बसे परमात्मा” के गायक थे।

संत पलटू साहब
Written By : मृदुला दुबे | Updated on: October 21, 2025 9:20 pm

पलटू साहब का जन्म अवध क्षेत्र में हुआ। बचपन से ही उनमें गहन भक्ति और ध्यान का बीज अंकुरित था। उन्होंने देखा कि लोग मंदिर-मस्जिदों में ईश्वर की तलाश में भटकते हैं, जबकि वह सच्चा घर  “भीतर”  भुला बैठे हैं।
उनकी वाणी पुकारती है —

“मन मंदिर का दीप जलाओ, बाहर क्यों फिरते हो रे।
अपने भीतर झाँको ज़रा, वही राम मिलते हो रे॥”

कर्मकांडों से परे — अनुभव की राह

संत पलटू ने बाह्य पूजा, कर्मकांड और अंधविश्वास का तीखा विरोध किया। उनका कहना था कि जब तक मन निर्मल नहीं होगा, तब तक कोई साधना सार्थक नहीं हो सकती। उनके लिए सच्चा धर्म था — मन का शुद्धिकरण, प्रेम का विस्तार, और जागरण की अवस्था।

वाणी का मर्म: सरल भाषा, गूढ़ अर्थ

पलटू साहब ने कठिन आध्यात्मिक सत्यों को लोकभाषा में बाँधा।
उनकी वाणी में अवधी और ब्रज का मधुर मिश्रण है।
हर दोहा मानो आत्मा का आईना बन जाता है —

“पलटू कहे सुनो रे भाई, मन ही देव अदेव।
मन ही करम, मन ही धरम है, मन ही पाप अमेघ॥”
अर्थ: ईश्वर और अधर्म, दोनों का निवास मन में है। मन को शुद्ध कर लो — वही तुम्हारा मंदिर है।

“मन बंधा तन बंधा रहै, मन छूटा तन छूट।
पलटू मन ही मुक्त है, तन तो माटी फूट॥”
अर्थ: मुक्ति शरीर की नहीं, मन की होती है। जब मन मुक्त होता है, तब जीवन भी मुक्त हो जाता है।

“पलटू कहे जो नाम जपे, सोई पार उतार।
नाम बिना सब जगत में, कोई नहीं तारनहार॥”
अर्थ: ईश्वर-स्मरण ही जीवन की नाव को पार लगाता है।

साधना का सार: भीतर का दीपक

उनकी साधना का केंद्र था — भीतर का दीपक।
वे कहते थे — जब मनुष्य ध्यान और नाम-स्मरण से अपने भीतर की नीरवता में उतरता है, तब वह अपने ही भीतर परमात्मा के दर्शन करता है।
उनके शब्दों में —

“जहाँ प्रेम वहाँ ईश्वर है, जहाँ द्वेष वहाँ अंधकार।
पलटू कहे, मन में झाँको, वही है सच्चा दरबार॥”

समाज में समता का संदेश:

पलटू साहब ने जाति-पांति, ऊँच-नीच और धार्मिक भेदभाव का विरोध किया।
उनके लिए हर जीव में एक ही चेतना का प्रवाह था —
“एक ही ज्योति, अनेक दीये।”
उनका जीवन करुणा, सादगी और आत्मविश्वास का जीवंत उदाहरण था।

ओशो की दृष्टि में संत पलटू:

ओशो ने संत पलटू को उन संतों में गिना जो “भीतर की दिशा” में पलट गए —
जिन्होंने बाहरी प्रतिष्ठा, कर्मकांड और समाज की स्वीकृति को पीछे छोड़ दिया।

ओशो कहते हैं

“पलटू की विशेषता यह थी कि वे ‘मुझे भूल जाना, मुझे मिटा देना’ की अवस्था में पहुँच गए —
जहाँ कर्ता-भाव समाप्त हो जाता है।”

उनके अनुसार, पलटू का नाम ही प्रतीक है —
‘पलट जाना’ यानी बाहर से भीतर की ओर मुड़ना।
ओशो कहते हैं —

“टेढ़ सोझ मुंह आपना, ऐना टेढ़ा नाहिं।”
— यह मनुष्य की दृष्टि का संदेश है, संसार का नहीं।

ओशो यह भी स्पष्ट करते हैं कि संतों में “बड़ा” या “छोटा” नहीं होता —
जो भीतर जाग गया, वह बस जाग गया — चाहे वह कबीर हो या पलटू।

भीतर उतरने की पुकार:

आज जब संसार बाहरी प्रदर्शन, मान-सम्मान और दिखावे में उलझा है —
तब संत पलटू साहब की वाणी भीतर से पुकारती है —

“मन को जीतो, जग जीत जाओ,
बाहर का रण झूठा है।
पलटू कहे, जो भीतर उतरा,
वही सच्चा साधू बूझा है॥”

पलटू साहब का संदेश:
समयातीत है —
ईश्वर कोई स्थान नहीं, एक अनुभव है।
वह बाहर नहीं, भीतर प्रतीक्षा कर रहा है।

[मृदुला दुबे योग शिक्षक और अध्यात्म की जानकार हैं. ]

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