1. मौन का स्वरूप:
ये केवल शब्दों की अनुपस्थिति नहीं है। यह मन की उथल-पुथल के शांत होने पर प्रकट होता है। जैसे किसी शांत झील में पत्थर फेंकने पर उठी लहरें धीरे-धीरे समाप्त हो जाती हैं, वैसे ही मन का मौन भीतर की तरंगों को स्थिर कर देता है।
2. मौन और ध्यान:
ध्यान इसकी की अवस्था में प्रवेश करने का माध्यम है। बुद्ध ने कहा है, “ध्यान केवल मौन नहीं है; यह मन के पार जाने की प्रक्रिया है।” जब हम ध्यान में बैठते हैं, तो धीरे-धीरे विचारों का प्रवाह मंद पड़ने लगता है। मन के कष्ट, वासनाएँ और विकार एक-एक कर शांत होते जाते हैं। और तब, हम अपने अस्तित्व के उस गहरी अवस्था से जुड़ते हैं, जहाँ केवल आत्मा की ध्वनि सुनाई देती है।
3. मौन और सत्य:
ये हमें सत्य से जोड़ता है। जब हम बाहरी शोर से हटकर अंतर्मुखी होते हैं, तब भीतर की सच्चाइयाँ स्पष्ट होने लगती हैं। सत्य का अनुभव करने के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं होती। जैसे एक साधु मौन में समाधिस्थ होकर सत्य का अनुभव करता है, वैसे ही एक साधारण मनुष्य भी अपने भीतर की गहराइयों में उतरकर सत्य का साक्षात्कार कर सकता है।
4. मौन और करुणा:
इसका का अभ्यास हमें संवेदनशील बनाता है। जब हम ऐसे रहते हैं, तब हम दूसरों की पीड़ा को गहराई से समझ सकते हैं। इससे से करुणा पैदा होती है।
5. मौन और अभिव्यक्ति:
ये स्वयं में एक भाषा है। यह शब्दों से कहीं अधिक स्पष्ट और प्रभावी होता है। बुद्ध ने इस साधना में सहयोगी बताया। इससे आत्मा शुद्ध होती है।
6. मौन की साधना:
प्रकृति के साथ रहें। पेड़ पोधे, पशु पक्षियों की देखभाल करें।
ध्यान करें: अपने श्वास को देखते हुए, विचारों को देखते हुए संवेदना को भी देखें।
कबीर के मौन पर दोहे
“साधो यह तन थाठरी, भरे भंडार मौन।
बोले तो विष बरसै, चुप रहिए तो अमृत सोहन।।”
अर्थ: यह शरीर एक बर्तन के समान है। यदि हम बोलते हैं, तो अहंकार और विष फैलता है। लेकिन जब हम मौन रहते हैं, तो वही अमृत बन जाता है।
“कबीरा मौन समाधि है, जिसमें बैठा होय।
जो बिन वाणी कहि सके, समझो वही सयाने सोय।।”
अर्थ: कबीर कहते हैं कि ये वह समाधि है, जिसमें साधक बैठा रहता है। जो बिना बोले अपनी बात कह सके, वही सच्चा ज्ञानी है।
“मौन रहो मत कुछ कहो, बस सुनो अंतर ध्यान।
जो सुनेगा प्रेम से, वह पाएगा भगवान।।”
अर्थ: कबीर कहते हैं कि कुछ मत कहो। बस अपने भीतर की आवाज को सुनो। जो प्रेमपूर्वक सुनता है, वही ईश्वर को प्राप्त करता है।
“बिना कहे जो जानता, वही सच्चा संत।
शब्द कहें तो भ्रम बढ़े, मौन में प्रभु दंत।।”
अर्थ: जो बिना बोले समझ जाए, वही सच्चा संत है। शब्द कहने से भ्रम उत्पन्न होता है, लेकिन इसमें ही ईश्वर के (रहस्य) छिपे हैं।
स्वयं से पूछें कि मैं कौन हूं? उपवास के साथ मौन रहें। इससे कृतज्ञता आएगी। व्यर्थ में एक शब्द भी न बोलें। ये एक औषधी है।
इसमें प्रवेश करना आत्मा के साथ साक्षात्कार करना है। यह कोई नकारात्मकता नहीं, बल्कि सकारात्मक ऊर्जा का केंद्र है।ये वह शून्य है, जिसमें पूरा ब्रह्मांड समाया है। मौन की शांति से बुद्धत्व प्रस्फुटित होता है।
(मृदुला दुबे योग शिक्षक और अध्यात्म की जानकार हैं। )
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