अध्यात्म : मन में बोध हो तो चित्त में नहीं आते विकार

बुद्ध का एक शिष्य था। वह नया-नया दीक्षित हुआ था, उसने संन्यास लिया था। बुद्ध को उसने कहा, "मैं आज कहाँ भिक्षा माँगने जाऊँ?"उन्होंने कहा, "मेरी एक श्राविका है, वहाँ चले जाना।" वह वहाँ गया। जब वह भोजन करने को बैठा, तो बहुत हैरान हुआ। रास्ते में इसी भोजन का उसे ख़याल आया था। "यह भोजन उसे प्रिय था, पर उसे कौन मुझे देगा? अब मुझे मेरे प्रिय भोजन को कौन देगा?" वह कल तक राजकुमार था और जो उसे पसंद था, वह खाता था। लेकिन उस श्राविका के घर वही भोजन देखकर वह बहुत हैरान हो गया। उसने सोचा, "संयोग की बात है, वही आज बना होगा!"

Written By : मृदुला दुबे | Updated on: April 8, 2025 11:52 pm

बुद्ध का वह शिष्य जब भोजन कर रहा था, उसे अचानक ख़याल आया, “भोजन के बाद तो मैं रोज विश्राम करता था । लेकिन आज तो मैं भिखारी हूँ! भोजन के बाद वापस जाना होगा। दो-तीन मील का फ़ासला, फिर धूप में तय करना है।”

वह श्राविका पंखा करती थी। उसने कहा, “भंते, अगर भोजन के बाद दो क्षण विश्राम कर लेंगे तो मुझ पर बहुत अनुग्रह होगा।”

भिक्षु थोड़ा हैरान हुआ कि “अब मेरी बात किसी भाँति पहुँची गई?” पर सोचा, “ठीक है, रात्रि को चलना पड़ेगा ।” रात्रि को चटाई डाल दी गई।

वह विश्राम करने लेटा ही था कि उसे ख़याल आया, “आज न तो अपनी कोई शय्या है, न अपना कोई साया है; अपने पास कुछ भी नहीं।”वह श्राविका जाती थी, लौटकर रुक गई। उसने कहा,”भंते, शय्या भी किसी की नहीं है, साया भी किसी का नहीं है। चिंता न करें।”

अब संयोग मान लेना कठिन था। वह उठ कर बैठ गया। उसने कहा, “मैं बहुत हैरान हूँ! क्या मेरे भाव पढ़ लिए जाते हैं?”वह श्राविका हंसने लगी। उसने कहा, “बहुत दिन ध्यान का प्रयोग करने से चित्त शांत हो गया। दूसरे के भाव भी थोड़े-बहुत अनुभव में आ जाते हैं।”

वह एकदम उठ कर खड़ा हो गया। वह अचानक घबरा गया और कांपने लगा। उस श्राविका ने कहा, “आप घबराते क्यों हैं? कांपते क्यों हैं? क्या हो गया? विश्राम करिए। अभी तो लेटे ही थे।”

उसने कहा, “मुझे जाने दें, आज्ञा दें।” उसने आंखें नीचे झुका लीं और चोरों की तरह वहां से भाग गया।श्राविका ने कहा, “क्या बात है? क्यों परेशान हैं?”फिर उसने लौट कर भी नहीं देखा। उसने बुद्ध को जाकर कहा, “उस द्वार पर अब कभी न जाऊंगा।”

बुद्ध ने पूछा, “क्या हो गया? भोजन ठीक नहीं था? सम्मान नहीं मिला? कोई भूल-चूक हुई?”

उसने कहा, “भोजन भी मेरे लिए प्रीतिकर था। सम्मान भी बहुत मिला, प्रेम और आदर भी था। लेकिन वहां नहीं जाऊंगा। कृपा करें! वहां जाने की आज्ञा न दें।”बुद्ध ने कहा, “इतने घबराए क्यों हो? इतने परेशान क्यों हो?”

बुद्ध ने उसे स्नेह से देखा। वह भिक्षु अभी भी कांप रहा था, जैसे कोई भीतर से हिल गया हो।

बुद्ध ने कोमल स्वर में पूछा, “कहो, क्या हुआ? क्या किसी ने कुछ कहा?”भिक्षु ने सिर झुका लिया। उसकी आँखों में असमंजस और भय था।

उसने धीमे स्वर में कहा, “वह श्राविका… वह मेरे भाव पढ़ लेती है। उसने जो कहा, उससे मैं भीतर तक हिल गया। मुझे लगा, जैसे मैं उसके सामने पूरा खुल गया हूँ। जैसे कोई मेरी छिपी हुई सोच को देख रहा हो।”

बुद्ध मुस्कुराए! उन्होंने कहा, “तो तुम डर गए?”

भिक्षु ने सिर हिलाया, “हाँ, भंते। यह कैसा अनुभव है? क्या सच में कोई और हमारे भाव पढ़ सकता है?”

बुद्ध बोले, “जब मन पूर्णतः शांत हो जाता है, निर्मल और विशुद्ध, तो वह झील की तरह पारदर्शी हो जाता है। उसमें दूसरों की भावनाओं की झलक भी दिख सकती है। जैसे शांत जल में सब स्पष्ट दिखता है, वैसे ही निर्मल चित्त में दूसरे के भाव प्रतिबिंबित हो सकते हैं।”

भिक्षु ने विस्मय से देखा, “तो क्या यह कोई शक्ति है?”

बुद्ध ने सिर हिलाया, “नहीं, यह कोई चमत्कार नहीं। यह केवल चित्त की गहराई और संवेदनशीलता का परिणाम है। लेकिन तुम बताओ, तुम इतने भयभीत क्यों हो?”

भिक्षु चुप रहा! बुद्ध ने सहजता से कहा, “क्या तुमने कुछ ऐसा सोचा, जो तुम नहीं चाहते थे कि कोई और जाने?”

भिक्षु की आँखें नीचे झुक गईं।

बुद्ध ने धीरे से कहा, “डरो मत। मन को देखो, समझो। यह अच्छा है कि तुम्हें पता चला कि भीतर कुछ ऐसा है जिससे तुम भाग रहे हो। लेकिन भागने से मुक्ति नहीं मिलती। जो भी भाव हैं, उन्हें पहचानो, स्वीकारो, और फिर छोड़ दो। यही ध्यान का मार्ग है।”

भिक्षु ने धीरे-धीरे सिर उठाया। अब उसका कंपन थोड़ा कम हो गया था। बुद्ध ने उस भिक्षु को फिर वहीं भेजा।

वह भिक्षु गया। उसे जाना पड़ा। भय था, पता नहीं क्या होगा? लेकिन वह अभय होकर लौटा। वह नाचता हुआ लौटा। कल डरा हुआ आया था, आज नाचता हुआ आया। कल आंखें नीचे झुकी थीं, आज आंखें आकाश को देखती थीं। आज उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे, जब वह लौटा। और बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा कि धन्य! क्या हुआ यह? जब मैं सजग था, तो मैंने पाया वहां तो सन्नाटा है। जब मैं उसकी सीढ़ियां चढ़ा, तो मुझे अपनी श्वास भी मालूम पड़ रही थी कि भीतर जा रही है, बाहर जा रही है। मुझे हृदय की धड़कन भी सुनाई पड़ने लगी थी। इतना सन्नाटा था मेरे भीतर। कोई विचार सरकता तो मुझे दिखता। लेकिन कोई सरक नहीं रहा था। मैं एकदम शांत उसकी सीढ़ियां चढ़ा। मेरे पैर उठे तो मुझे मालूम था कि मैंने बायां पैर उठाया और दायां रखा। और मैं भीतर गया और मैंने भोजन करने बैठा। यह जीवन में पहली दफा हुआ कि मैं भोजन कर रहा था तो मुझे कोर भी दिखाई पड़ता था। मेरा हाथ का कंपन भी मालूम होता था। श्वास का कंपन भी मुझे स्पर्श और अनुभव हो रहा था। और तब मैं बड़ा हैरान हो गया, मेरे भीतर कुछ भी नहीं था, वहां एकदम सन्नाटा था। वहां कोई विचार नहीं था, कोई विकार नहीं था।

बुद्ध ने कहा, जो भीतर सोचते हैं, जो भीतर जागा हुआ है, जो भीतर होश में है, विकार उसके द्वार पर आने बंद हो जाते हैं, जैसे किसी घर में प्रकाश हो तो उस घर में चोर नहीं आते। जिस घर में प्रकाश हो तो उससे चोर दूर से ही निकल जाते हैं। वैसे ही जिसके मन में बोध हो, जागरण हो, अमूर्च्छा हो, अवेयरनेस हो, उस चित्त के द्वार पर विकार आने बंद हो जाते हैं। वे शून्य हो जाते हैं।

(मृदुला दुबे योग शिक्षक और अध्यात्म की जानकर हैं।)

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