Cinema इस बयार ने भारत के धार्मिक, पौराणिक महत्त्व को विश्व मंच पर दृढ़तापूर्वक स्थापित किया है और इसका असर इतना जबरदस्त है कि विदेशी चकाचौंध में डूबे बॉलीवुड को भी अब ब्रह्मास्त्र भाग-1, शिवाय और सावी जैसी विशुद्ध सनातन संस्कृति को महिमा मंडित करने वाली अनेक फिल्में बनाने के लिए बाध्य होना पड़ा है।
फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ से ही हो गई थी इसकी शुरुआत
यूँ तो इसकी शुरूआत बहुत पहले सन 1913 में भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ से ही हो गई थी, लेकिन सत्तर के दशक में माफिया डॉन के फिल्मों में दखल के बाद से यह प्रक्रिया ईसाइयत और इस्लामपरस्ती तथा पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध में खोने लगी थी और हिंदुओं को खलपात्र बनाने, हिंदू नायक को नास्तिक दिखाने, अन्य धर्म के लोगों को परम धार्मिक दर्शाने और उनके भगवान एवं पैगंबरों के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने को चित्रित करने तथा हिंदू देवी-देवताओं की हँसी उड़ाने की वीभत्स परंपरा की शुरुआत हो गई थी। इसके लिए ‘शोले’, ‘डॉन’, ‘खलनायक’ ‘नास्तिक’, ‘अंधा कानून’, ‘खुदागवाह’, ‘पीके’, ‘ओएमजी’ आदि अनेक फिल्में बनाई गईं और अपराधियों को समाज का नायक दिखाने का कुत्सित षड्यन्त्र रचा गया।
कलावा-तिलक की हँसी उड़ाने के दृश्य जान-बूझकर रचे गए
इसके लिए भगवान को चुनौती देने, उन पर श्रद्धा रखने वालों को पुरातनपंथी घोषित करने, ताबीज के चमत्कार दिखाने, गले में क्रॉस पहनने को आधुनिकता का प्रतीक बताने और कलावा-तिलक की हँसी उड़ाने के दृश्य जान-बूझकर रचे गए। करण जौहर की एक तथाकथित सुपरहिट फिल्म में तो हद ही पार कर दी गई, जब उसमें तिरंगे की जगह यूनियन जैक फहराते दिखा दिया गया। यह सब तथाकथित सेक्युलरिज्म के नाम पर किया गया और अमिताभ बच्चन, खान त्रयी तथा हिंदी Cinema के हिंदू अभिनेताओं से ये सब कुकृत्य कराए गए, जिस पर टी सीरीज़ के मालिक गुलशन कुमार ने चोट करने का सफल प्रयास किया था, लेकिन उनकी नृशंस हत्या के बाद हिंदी फिल्म जगत से जुड़े हुए लोगों ने सनातन को पद दलित कर इन माफियाओं को प्रसन्न करने का हर संभव प्रयास किया।
टीवी धारावाहिकों ने भारतीय संस्कृति की बुनियाद मजबूत की
लगभग उसी दौर में टीवी के माध्यम से कुछ चमत्कार किए गए और हम लोग, बुनियाद, रामायण तथा महाभारत जैसे शानदार टीवी धारावाहिकों ने भारतीयता और भारतीय संस्कृति की बुनियाद को मजबूत किया, लेकिन बीच में खान त्रयी और इनके हिंदू सहयोगियों को आगे रखकर एक बार फिर से हिंदी Cinema को दूषित करने का कुप्रयास किया गया और दक्षिण भारत में भी कुछ फिल्मों में ऐसे भारतीयता एवं सनातन संस्कृति के विरोधी दृश्य रखने के प्रयास किए गए, लेकिन दक्षिण की प्रबुद्ध जनता ने ऐसे विचारों को ठुकराकर इनकी हवा निकालने का काम किया। मूलतः तेलुगु में निर्मित बाहुबली, कन्नड़ में निर्मित कांतारा और ऐसी अनेक दक्षिण भारतीय फिल्मों की पैन इंडिया सफलता से और इनका हिंदी समेत देश की पाँच या पाँच से अधिक भाषाओं में डबिंग किए जाने और ओटीटी पर भी इन्हें प्रदर्शित किए जाने से इनकी सम्पूर्ण भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में स्वीकार्यता बढ़ी है, जो भारतीय संस्कृति की जड़ों को मजबूत करने की दिशा में सार्थक प्रयास है, जिसकी सराहना की जानी चाहिए।
(प्रो. पुनीत बिसारिया बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी में हिंदी के प्रोफेसर हैं और फिल्मों पर लिखने के लिए जाने जाते हैं। वेद फिल्म फाउंडेशन ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं तथा गोल्डेन पीकॉक इंटरनेशनल फिल्म प्रोडक्शंस एलएलपी के नाम के फिल्म प्रोडक्शन हाउस के सीईओ हैं।)
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