Book review : सशक्त स्त्री वह है जो किसी निर्णय प्रक्रिया में शामिल होती है तो उसके पास अपनी स्वतंत्र स्वतंत्र राय होती है भले ही वह स्थापित मान्यताओं और विश्वासों के खिलाफ हो।” – सुजाता।
‘विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई’पुस्तक की लेखिका सुजाता ने उक्त बातें पुस्तक की भूमिका में लिखी हैं। लेखिका सुजाता एक स्थापित नाम है। पिछले दो दशकों से अधिक समय से दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य कर रही हैं।’आलोचना का स्त्री पक्ष’ पुस्तक के लिए इन्हें 2022 साल का प्रतिष्ठित “देवीशंकर अवस्थी सम्मान”से सम्मानित किया गया है।
इनका उपन्यास “एक बटा दो “भी काफी चर्चित रहा है। सुजाता ने इस पुस्तक के माध्यम से एक महत्वपूर्ण भारतीय विदुषी महिला की जीवन पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है जो भुला सी दी गयी थी।
‘यह जीवनी हिंदी लोकवृत्त में दशकों से उपस्थित खालीपन को ही नहीं भरती बल्कि गहन शोध से एकत्र विपुल सूचनाओं और सामग्रियों के सहारे भारतीय पुनर्जागरण के एक स्त्रीवादी पाठ की राह खोलते हुए वर्तमान के लिए रमाबाई की प्रासंगिकता को भी रेखांकित करती है।
‘ रमाबाई के संबंध में विशद अध्ययन और शोध कर सुजाता ने उनकी स्वयं की लेखनी का भी पूरा अध्ययन किया है। पुस्तक में एक प्रसंग आता है जब रमाबाई के उच्च अध्ययन हेतु इंग्लैंड यात्रा पर टीका टिप्पणी शुरू हो जाती है और कैसे रमाबाई निर्भीकता से उनका दृढ़ होकर दो टूक जबाब देती हैं। सुजाता रमाबाई के लिखे को उद्धृत कर लिखती हैं ‘‘कहा गया रमाबाई वहाँ के रंग में रंग जाएंगी ,लेकिन इस बात पर रमा मुतमइन थीं कि अगर कोई न चाहे तो दूसरा ज़बरदस्ती उसे बदल नहीं सकता और अगर ऐन्द्रिक सुखों की ही बात है तो उम्र का कोई फर्क नहीं होता, क्या जवान क्या बूढ़ा,!हमारे देश में ऐसे बूढ़ों की कमी है क्या, जिनकी हालत यह है कि शायद अगले ही दिन अंतिम संस्कार हो जाए, वे पैसे-रुपये की बदौलत 8-9 की लड़कियों से शादी कर लेते हैं।” इस शोधपूर्ण पुस्तक में अंत में परिशिष्ट में सारे संदर्भों का उल्लेख है और बहुत ऐतिहासिक चित्रों का भी समावेश किया गया है।
Book review में कहा क्षमा सकता है कि पुस्तक एक श्रम पूर्वक महत्वपूर्ण शोध के बाद लिखा गया है पर इस प्रकार के अन्य पुस्तकों की तरह बोझिल कहीं भी नहीं है। पाठक की उत्सुकता बनी रहती है अंत तक और इच्छा होती है कि काश लेखिका ने थोड़ा और विस्तार दिया होता! भाषा बहुत सरल, बोधगम्य लेकिन उच्च स्तर का है। तद्भव शब्दों का प्रयोग थोड़ा अधिक है ज़रूर लेकिन अप्रासंगिक नहीं। भाषा बहुत प्रवाहमान है।पोथी रोचक है, पठनीय है, संग्रहणीय है।
किताब का नाम-विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई, प्रकाशक-राजकमल
पेपरबैक, पृष्ठ-248,मूल्य-रु.299.
(पुस्तक के समीक्षक प्रमोद कुमार झा रांची दूरदर्शन केंद्र के पूर्व निदेशक हैं और कला व साहित्य के राष्ट्रीय स्तर के मर्मज्ञ हैं।)
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