दरिद्रता से बड़ा कोई दुख नहीं और संत (Saint) से मिलने से बढ़कर कोई सुख नहीं है। संत पर माया का प्रभाव नहीं चलता, बल्कि माया स्वयं उनके चरणों की सेवा करती है।
संत का स्वरूप
संत वही होता है जो अपने धर्म का पालन करता है और सदा ईश्वर की भक्ति में लीन रहता है। वह सरल, संप्रदाय से दूर, और केवल लोक कल्याण के लिए समर्पित होता है। संत के बारे में कहा गया है:-
“साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहीं।
धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधु नाहीं।।”
अर्थात, संत केवल भावनाओं से प्रसन्न होते हैं और धन की कोई लालसा नहीं रखते। जो धन का लोभी होता है, वह सच्चा संत नहीं हो सकता।
संतों की विशेषताएं
संत (Saint) का जीवन सरल, एकांत साधना और लोक कल्याण में व्यतीत होता है। वे व्यर्थ के एक भी शब्द नहीं बोलते और हर बात कहने से पहले गहराई से सोचते हैं। उनकी वाणी हमेशा दूसरों के कल्याण के लिए होती है और वे अत्यंत सहनशील और विनम्र होते हैं। संत थोड़े में भी संतुष्ट रहते हैं और कभी किसी प्रकार की शिकायत नहीं करते।
संतों (Saint) की सोच और दृष्टि इतनी गहरी होती है कि उन्हें समझ पाना आसान नहीं होता क्योंकि वे अंतर्मुखी होते हैं। उनके भीतर की शांति और ज्ञान ही उन्हें विशिष्ट बनाते हैं।
संत की संगति का प्रभाव:
संतों की संगति अत्यंत प्रभावशाली होती है, यहां तक कि बड़े-बड़े अपराधी भी उनके सान्निध्य में आकर अपने जीवन का रूपांतरण कर लेते हैं। उदाहरणस्वरूप अंगुलिमाल डाकू और रत्नाकर डाकू, जो अपने-अपने समय में बहुत कुख्यात थे, संतों के प्रभाव से परिवर्तित होकर भिक्षु और महर्षि बन गए।
अंगुलिमाल की कथा
बुद्ध अंगुलिमाल जैसे डाकू को भी भिक्षु बना लेते हैं जैसे – जहां पर अंगुलिमाल डाकू जिस जंगल में रहता था उस जंगल की तरफ कोई भी जाने से डरता था। बहुत भयंकर डाकू था। हंसता था तो मानो बिजलियां गिर रही हैं ।उसका नाम सुनते ही सब अपने दरवाजे बंद कर लेते थे, छुप जाते थे लेकिन जब बुद्ध जैसे करुणामय संत को पता चला तब उसके कल्याण की भावना से बुद्ध बिल्कुल भी नहीं डरे न रुके और उस जंगल में चलते चले गए तब अंगुलिमाल को बड़ा आश्चर्य हुआ कि सब मुझसे थर-थर कांपते हैं और यह कैसा सन्यासी है जो बिना डरे चला आ रहा है? अंगुलिमाल दहाड़ कर बोला – रुक जा! तब बुद्ध बहुत ही प्रेम से, विनम्रता से करुणा की, मैत्री की तरंगे भेजते हुए कहते हैं- मैं तो रुक गया हूं लेकिन तुम कब रुकोगे? इतना सुनने पर अंगुलिमाल ठिठका और सोचने लगा कि यह सन्यासी क्या कह रहा है? उसके भीतर एक आश्चर्यमयी घटना घट गई। बुद्ध नपे तुले कदमों से उसके पास पहुंचे और बहुत प्यार से उसके सिर पर हाथ रखते हुए बोले- तुममें बहुत महान बनने की संभावना है, अब अपने इस कर्म को त्याग दो। अंगुलिमाल बहुत ही दुखी होकर पश्चाताप के आंसू बहाते हुए पूछता है? क्या मैं भी भिक्षु बनने योग्य हूं ? तब बुद्ध कहते हैं- हां, फिर अंगुलिमाल अपना शास्त्र फेंक कर बुद्ध के चरणों में गिर जाता है और बुद्ध उसे डाकू से भिक्षु बना देते हैं। यह होता है संत की मैत्री की तरंगों का परिणाम।
रत्नाकर डाकू से वाल्मीकि बनने की कथा–
रत्नाकर नाम का डाकू भी राहगीरों को लूटा करता था। एक दिन नारद मुनि के संपर्क में आने के बाद उसकी चेतना का रूपांतरण हुआ। नारद जी ने उसे ‘राम-राम’ का जाप करने की सलाह दी, जिसके परिणामस्वरूप वह डाकू से महर्षि वाल्मीकि बन गया और रामायण जैसी अमर कृति की रचना की। यह संत की संगति का प्रभाव है जो एक डाकू को महर्षि बना सकता है।
संत की संगति का महत्व:
संतों (Saint) की संगति का महत्व अपार है। एक पल की संगति भी जीवन में अद्भुत बदलाव ला सकती है। संत की उपस्थिति और उनका मार्गदर्शन जीवन के सारे मैल और पापों को धो सकता है। संतों का जीवन समाज के लिए एक प्रेरणा स्रोत होता है, जो आध्यात्मिकता, सरलता और सहनशीलता के मूल्यों को सिखाता है।
(मृदुला दुबे योग शिक्षक और आध्यात्मिक गुरु हैं )
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