कवि और कविता : पढ़ें विनय विक्रम सिंह, डॉ. अमित कुमार सिंह कुशवाहा और डॉ. पवन कुमार पांडे के साथ अन्य कवियों को

कवि और कविता में इस सप्ताह ज्योति पर्व दीपावली शीर्षक से कविताएं सामयिक हैं। एकरसता से बचने के के लिए कुछ अन्य कवियों की भी कविताएं हैं। आनंद लें -

Written By : रामनाथ राजेश | Updated on: November 3, 2024 9:43 am

poets and poetry

दीपावली

आज लगा बाकी दिन
कितने रूखे हैं।।

अँगनाई अगियार
करेगी पुरखों की।
गुड़-घी की मन्नत है,
उनकी बरसों की।
चन्दा मामा जल्दी
लड़ियाँ टाँग रहे।
दीवट-ताखों के मुँह
सूखे-सूखे हैं।१।

चौक पूरने सरयू में
जल आया है।
त्रेता से बेड़िया गागर
भर लाया है।
गौरा सतिया रचती
कुलबुल देख रही।
पुए पूर के दिये
बिचारे भूखे हैं।२।

पनपियाव में खील
बताशे गट्टे हैं।
रेहू ने रेहुआये लक-
दक लत्ते हैं।
पिढ़ई अक्षत-हल्दी से
कनफुसक रही।
लछमी मइया कितनी
लछमी ‘मूखे हैं।३।

– विनय विक्रम सिंह

( कान्स लायन्स विजेता कला दिग्दर्शक और साहित्यकार)

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poets and poetry

न गाँव न शहर

मैं शहर हूँ
मेरा सबसे बड़ा सौभाग्य है
मेरे पास एक नदी है !

मैं नदी हूँ
मेरा सबसे बड़ा दुर्भाग्य है
मेरे पास एक शहर है!

मैं एक गाँव हूँ
मेरा सबसे बड़ा सौभाग्य है या दुर्भाग्य है
मेरे पास ना नदी है और ना ही शहर है

–   डॉ. अमित कुमार सिंह कुशवाहा
सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग
पंजाब केन्द्रीय विश्वविद्यालय
गाँव व एवं डाकघर, घुद्दा, बठिंडा

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अब सयानी

हो गई हो अब सयानी, छोड़कर प्रिय बचपना।
ओढ़ बैठी लाज का तुम, आवरण है जो घना।।

दौड़ भी पाती नहीं हो, बेड़ियाॅं अभिनव लगी,
धन मिला यौवन का किंतु, लग रही हो तुम ठगी,
चाह तो नित नव उठे पर, कर रही हो तुम मना।
ओढ़ बैठी लाज का तुम, आवरण है जो घना।।

पुष्प-पल्लव नव लिए हो, झुक रही तरु डार-सी,
चल रही पलकें झुकाऍं, लग रही मृदु भार-सी,
कह रहा मन कुछ करूॅं पर, चाहती हो रोकना।
ओढ़ बैठी लाज का तुम, आवरण है जो घना।

देखकर दर्पण कभी तो, कर रही तुम बात हो,
साॅंझ कहती भोर को तो, भोर को तुम रात हो,
कुछ जगी कुछ अधजगी-सी, है निराली चेतना।
ओढ़ बैठी लाज का तुम, आवरण है जो घना।।

-डॉ. पवन कुमार पाण्डे
असोसिएट प्रोफेसर
निजामाबाद, तेलंगाना
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poets and poetry

कह गया कान में चुपके से ,वो जाते- जाते
आयेगा तुमको तजुर्बा अभी आते आते

ज्यूँ तुझे पाने से पहले ही गवाँ बैठे हम
तू भी खो बैठे किसी को यूँ ही पाते- पाते

बात तो तब है कि तू वक्त से पहले सीखे
खत्म हो जाये न , तू ठोकरें खाते – खाते

दर्द यादों का तेरी , यूँ नही जाने वाला
हाँ ये जायेगा ,मगर जायेगा जाते – जाते

आप कहते हैं ” तेरी ग़ज़लों में रखा क्या है
आँख भर आयेगी , ग़ज़लें मेरी गाते- गाते

-कपिल कुमार, बेल्जियम

( अभिनेता, लेखक और पत्रकार, 30 वर्षों से यूरोप में )

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दीपावली विशेष

बुंदेली हाइकु

मन भीतरे।।
भगाऔअदियारौ।
दिया उजारौ।।

जै हो लच्छमी,
सारे दुख हरियो।
कृपा करियों।।

खुशी मनाओ,
पूजा थार सजाऔ।
मिठाई बांटो।।

फुलजरी, चकरी,
बम,राकेट संग।
पटाखे घालो।।

मौनिया नाचे,
घर घर जाकर।
खुशियां बांटे।।

-राजीव नामदेव “राना लिधौरी
नई चर्च के पीछे, शिवनगर कालोनी,
टीकमगढ़ (मप्र)-472001
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