अपने व्याख्यान में प्रो. मकरंद परांजपे ने कहा कि महात्मा गांधी और वी. डी. सावरकर के बीच वैचारिक भिन्नता की जड़ें वर्ष 1909 में मिलती हैं, जब दोनों विचारकों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए भिन्न-भिन्न मार्गों को रेखांकित करने वाली महत्त्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाशित कीं। सावरकर की द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस, 1857 और गांधी जी की हिंद स्वराज—दोनों ही कृतियाँ उसी वर्ष प्रकाशित हुईं। ये पुस्तकें ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दी गईं, जो औपनिवेशिक सत्ता के प्रति उनकी चुनौती को दर्शाता है। उन्होंने कहा कि सावरकर की कृति का विशेष महत्त्व इस बात में है कि उसने 1857 को ‘सिपाही विद्रोह’ के बजाय ‘स्वतंत्रता संग्राम’ के रूप में पुनर्व्याख्यायित किया और उन हिंदू-मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों को सामने रखा, जो ब्रिटिश इतिहास-वृत्तांतों में प्रायः अनुपस्थित थे। दूसरी ओर, हिंद स्वराज, जिसे गांधी जी ने एस.एस. किल्डोनन कैसल जहाज़ पर लिखा, एक भिन्न दृष्टि प्रस्तुत करती है—जो हिंसा को अस्वीकार करते हुए नैतिक बल और सत्याग्रह को स्वराज का मार्ग मानती है।
प्रो. परांजपे ने रेखांकित किया कि जहाँ सावरकर औपनिवेशिक शासन के सशस्त्र प्रतिरोध के पक्षधर थे, वहीं गांधी जी का मत था कि हिंसा से प्राप्त स्वतंत्रता अंततः दमनकारी की ही पद्धतियों की पुनरावृत्ति होगी। उन्होंने कहा “दोनों निडर थे”। वैचारिक मतभेदों के बावजूद गांधी और सावरकर—दोनों भारत की स्वतंत्रता और स्वराज के प्रति गहन रूप से प्रतिबद्ध थे, यद्यपि उनकी परिभाषाएँ भिन्न थीं।
बाद के विकासक्रम पर विचार करते हुए उन्होंने कहा कि 1923 के बाद सावरकर की सोच में परिवर्तन आया, जो अंडमान में उनके अनुभवों और खिलाफ़त आंदोलन के बाद के राजनीतिक परिवेश से प्रभावित था। दूसरी ओर गांधी जी जीवन के अंत तक एकता और नैतिक प्रतिरोध पर बल देते रहे। उन्होंने यह भी स्मरण कराया कि गांधी जी की अहिंसा रक्षा की आवश्यकता से असंगत नहीं थी। इसके समर्थन में परांजपे ने स्वतंत्रता के बाद कश्मीर में नागरिकों की सुरक्षा हेतु भारतीय सेना की तैनाती के गांधी जी के विचार का उल्लेख किया। समापन में प्रो. परांजपे ने कहा कि भारत को गांधी और सावरकर—दोनों से उनके ऐतिहासिक संदर्भों में संवाद करना चाहिए। “वे स्वराज के स्पेक्ट्रम के दो छोरों का प्रतिनिधित्व करते हैं।” उन्होंने कहा कि वैचारिक संकीर्णता के बजाय संवाद के माध्यम से उनके विचारों को समझना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि यह दृष्टिकोण न केवल उनके मतभेदों और समन्वयों को पुनः देखने का आग्रह करता है, बल्कि इतिहास के विकृतिकरण के प्रति भी सावधान करता है। “यदि भारत को आगे बढ़ना है, तो उसे संवाद के लिए स्थान बनाना होगा, केवल विभाजन को गहरा नहीं करना होगा।”
सत्र की अध्यक्षता आईजीएमसीए ट्रस्ट के अध्यक्ष श्री राम बहादुर रायने की। कला केंद्र में कला निधि प्रभाग के अध्यक्ष और आईजीएनसीए के डीन प्रो. (डॉ.) रमेश सी. गौर ने व्याख्यान का परिचय प्रस्तुत किया और स्वागत भाषण दिया। यह स्मृति व्याख्यान साहित्य, विचार और सांस्कृतिक विमर्श में मुल्क राज आनंद के जीवन और बौद्धिक योगदान को समर्पित था। उनका निजी संग्रह 2023 में कला निधि प्रभाग को प्राप्त हुआ था।
इस अवसर पर श्री राम बहादुर राय ने कहा कि अपने समापन वक्तव्य में प्रो. मकरंद परांजपे ने सभी विचारधाराओं के स्वागत की आवश्यकता पर बल दिया। श्री राय के अनुसार, परांजपे के वक्तव्य का सार सावरकर, महात्मा गांधी और श्री अरविंद—इनकी ‘समांतर धाराओं’ को समझने में निहित है; कोई भी महापुरुष दूसरे का विरोधी नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक अपने विश्वास और संदर्भ से विकसित होता है। व्याख्यान के बाद प्रश्नोत्तर के माध्यम से श्रोताओं को एक ऐतिहासिक कालखंड तथा उसकी वर्तमान प्रासंगिकता को समझने का अवसर मिला।
श्री राय ने कहा कि प्रो. मकरंद परांजपे द्वारा प्रस्तुत संवाद बौद्धिक रूप से समृद्ध और अर्थपूर्ण था। चर्चा के अनेक स्तर उभरे, विशेषकर 1857 से 1947 के स्वतंत्रता आंदोलन को विभिन्न महान व्यक्तित्वों द्वारा देखे जाने के संदर्भ में। इसी क्रम में हिंद स्वराज और सावरकर से जुड़े विचारों पर भी विचार हुआ। उन्होंने यह भी कहा कि हिंद स्वराज को लेकर प्रचलित भ्रांतियों—विशेषतः यह कि गांधी जी ने इसे क्यों और किसके लिए लिखा—पर सार्थक चर्चा हुई। एस. आर. मेहरोत्रा के शोध का उल्लेख करते हुए श्री राय ने कहा कि हिंद स्वराज 1909 में डॉ. प्रांजीवन भेहता के लिए लिखी गई थी और उस समय की गांधी जी की चिंतनधारा को प्रतिबिंबित करती है; वहीं 1947 के बाद संशोधन पर उनकी चुप्पी भी विचारणीय है।
श्री राम बहादुर राय ने निष्कर्षतः कहा कि सावरकर, गांधी, आंबेडकर, सर सैयद अहमद ख़ान और श्री अरविंद—इन सभी के विचार अपने-अपने समय की उपज थे, और 1947 के बाद के संदर्भ में उनसे नए सिरे से संवाद की आवश्यकता है। जो आज प्रासंगिक है, उसे ग्रहण किया जाना चाहिए, और जो नहीं है, उसे अलग रखा जा सकता है; जबकि संवाद, पारस्परिक सम्मान, करुणा और प्रेम जैसे मूल्य समकालीन जीवन का मार्गदर्शन करते रहेंगे।
प्रारम्भ में प्रो. रमेश सी. गौर ने परिचयात्मक वक्तव्य और स्वागत भाषण देते हुए विविध बौद्धिक परंपराओं से संवाद के महत्त्व तथा ऐतिहासिक और समकालीन संदर्भों में विचारों के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि ऐसे विमर्श अकादमिक संवाद और भारत की बौद्धिक परंपरा की गहरी समझ के लिए आवश्यक हैं। कार्यक्रम में विद्वानों, शोधकर्ताओं, विद्यार्थियों और अकादमिक समुदाय के सदस्यों ने सहभागिता की और चर्चाओं में सक्रिय रूप से भाग लिया।
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