Egotism : ‘मैं’ और ‘मेरा’ की भावना ही अहंकार का कारण है

भगवद गीता के अनुसार अहंकार का अर्थ है "मैं"और " मेरा" की भावना। यह वो स्थिति है जब व्यक्ति अपने आपको शरीर, मन और इन्द्रियां मानकर विचार करता है। भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति से संसार की प्रत्येक वस्तु का मालिक हो जाने के लिए पूरे जीवन संघर्ष करता है।

Written By : मृदुला दुबे | Updated on: August 10, 2024 8:16 am

Egotism

स्वामी विवेकानंद जी ने कहा –  आत्मा कुछ नहीं है, पर अहंकार सब कुछ है।हमारा जीवन ही वही है, वह सब कुछ है।

कबीरदासजी ने कहा- जब मैं अपने अहंकार में डूबा था, तब प्रभु को न देख पाता था।

ओशो ने कहा अस्तित्व में चेतना की केवल दो ही अवस्थाएं हैं – एक अहंकार की अवस्था और दूसरी प्रेम की अवस्था।

केवल मैं ही सही हूं, ये अहंकार (Egotism) है

स्वयं के बारे में झूठी भावना को अहंकार कहते हैं। हारने पर बदला लेने की भावना रखना इस बात का संकेत है कि हमें अहंकार है। अहंकारी (Egotism) व्यक्ति को अपनी हार को स्वीकार करने में कठिनाई होती है।

बुद्ध कहते हैं – किसी भ्रामक चीज़ के प्रति लालसा और आसक्ति को अहंकार कहते हैं।

अहंकारी व्यक्ति (Egotism) को संसार की नश्वरता का जरा सा भी बोध नहीं होता। अपनी इच्छापूर्ति हेतु खूब प्रपंच रचता है और किसी भी संत के पास उसका चित्त नहीं ठहरता। ऐसे बेहोश व्यक्ति की अपनी एक अलग दुनिया होती है और वो एक राजा की भांति अपने बनाए झूठे नियमों की बात करता है। किसी की नहीं सुनता क्योंकि अज्ञानता के कारण लोभ से भरा अपनी तृष्णापूर्ति में लगा खूब अन्याय भी कर बैठता है।

मनोवैज्ञानिक फ्रायड के अनुसार मानव का मानस तीन अलग- अलग लेकिन परस्पर क्रियाशील भागों से बना है: आईडी, अहंकार और सुपरइगो। ये तीनों अलग- अलग समय पर विकसित होते हैं और एक साथ मिलकर एक सम्पूर्ण छप बनाकर व्यवहार में योगदान देते हैं।

अहंकार की वजह से स्वामी समझ बैठा था रावण

रावण अपने पद, धन, अमरता और सर्वशक्तिमान होने की कामना से तप करके सिद्धियां प्राप्त कर अपने अहंकार (Egotism) को खूब बढ़ाता रहा। रावण को ज्ञानी कहते हैं लेकिन वह नैतिकता को इतना सा भी नहीं जानता था कि किसी अन्य की पत्नी को भोगने की इच्छा को व्यभिचार कहते हैं। उसका अपनी कामवासना पर नियंत्रण नहीं था क्योंकि अहंकार (Egotism) से वह स्वयं को स्वामी समझ बैठा था।
लोभ, क्रोध, मोह कामवासना ये सब अहंकार की संतान हैं, जो क्षणभर को भी चैन नहीं लेने देती। मनुष्य अपने सुख हेतु अपने मन में बैठे अहंकार की उपेक्षा करते हुए अन्यों को बहुत कष्ट देता है।

जहां अहंकार है ,वहां प्रेम नहीं स्वार्थ है

बच्चे के बड़े होने के साथ साथ “मैं” ,” मैं” बोलने के साथ ही अहंकार (Egotism) भी फलता फूलता जाता है। यदि ईश्वर में आस्था और विश्वास रखते हुए प्रति क्षण अपनी प्रत्येक भावना को ईश्वर को समर्पित करते जाएं तो अहंकार (Egotism) नहीं होगा।

इंद्रदेव को बहुत अहंकार था

उनका पद न छिन जाए इस डर से तप कर रहे मुनियों के पास अप्सराओं को भेजते थे ताकि वो उन्हें नीचे गिरा दें। नारदजी ने, शनि ने और भगवान कृष्ण ने बहुत समझाया कि अहंकार ठीक नहीं है फिर भी इंद्र न माने तब शनि ने कहा कल आकर तुम्हें हरा दूंगा। हारने के डर से इंद्र घने जंगल में, अंधेरे में एक गड्ढे के अंदर छुप गए और अगले दिन सुबह भूखे प्यासे गड्ढे से बाहर आए तब शनि सामने खड़े थे। शनि ने कहा कि तुम्हें 24 घंटे भूखा प्यासा गड्ढे में रख दिया अब बोलो। तब इन्द्र लज्जित हुए और हार स्वीकार की।

खुद के कल्याण के लिए तीसरा नेत्र खुलना आवश्यक

अहंकार (Egotism) में व्यक्ति भौतिक आंखों से देखे हुए को ही सत्य मानकर उलझा रहता है, जबकि अपने कल्याण के लिए तीसरा नेत्र खुलना बहुत जरूरी है और तीसरा नेत्र प्रज्ञा से खुलता है । हम अनेकों सिद्धियां प्राप्त करें, बहुत जन्मों तक हम तपस्या करते रहें लेकिन उसके पीछे जो हमारा उद्देश्य है वह यदि लोभ हेतु है , तब हमें सिद्धियां तो मिलेंगी क्योंकि जो तप है उसका फल तो मिलेगा लेकिन साथ-साथ अहंकार भी बढ़ता जाएगा। कुछ भी प्राप्त करने के बाद व्यक्ति को अहंकार होता है। यदि व्यक्ति प्रभु के प्रति समर्पित होते हुए, मैं को छोड़ते हुए तप करता है, तब उसके तप के साथ-साथ उसका मैं भी मिटता जाता है और अहंकार भी समाप्त होता है।

( मृदुला दुबे आध्यात्मिक चिंतक और योग गुरु हैं। )

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