पर्यावरण संरक्षण की बात करता सिनेमा (भाग-1)

पर्यावरण और भारतीय साहित्यिक आर्ष ग्रंथ पर्यावरण के प्रति समर्पित रहे हैं। साहित्य के प्राचीनतम स्वरूपों तथा मन रंजन के रूप में लोकप्रिय नाट्य विधा की कृतियों तथा इनके सार्वजनिक मंचनों में पर्यावरण संरक्षण की चिंता चिर काल से स्पष्ट दिखती आई है। हड़प्पा अथवा सिंधु घाटी की सभ्यता के निवासियों द्वारा प्रकृति की उर्वरा शक्ति की प्रतीक मातृ देवी की उपासना की जाती थी।

Written By : प्रो. पुनीत बिसारिया | Updated on: September 29, 2024 4:02 pm

environmental protection

वेदों में ‘गिरियः ते पर्वता हिमवंतोsरण्यम तं पृथ्वीस्योनमस्तु’ अर्थात स्वच्छ जल, वायु, अग्नि तथा पृथ्वी इन देवों को मैं नमन करता हूँ, कहकर इनके संरक्षण को नमनीय कहा गया है। तदनुरूप नाटकों में भी पर्यावरण की सुध ली गई है। महाकवि कालिदास ‘अभिज्ञान शाकुंतल’ नाटक के मंगलाचरण में पर्यावरण संरक्षण की मंगल कामना करते हुए कहते हैं-
या सृष्टिः स्रस्टु राद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री ये द्वे कालं विधत्तः श्रुति विषय गुणा या स्थितः व्याप्यविश्वं। सर्वबीज प्रकृतिरित ययाप्राणिनःप्राणवंतः प्रत्यक्षाभिप्रपन्नस्तनुभिरवतु वः ताभिरष्टाभिरीशः।
अर्थात जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चंद्रमा, यज्ञ, हवि एवं यज्ञकर्ता, ये परमात्मा शिव की प्रत्यक्ष अष्ट मूर्तियाँ हैं। ऐसे प्रत्यक्ष अष्ट मूर्तियों वाले शिव सबकी रक्षा करें।

भास कृत ‘स्वप्नवासवदत्तम’, कालिदास कृत ‘विक्रमोर्वशीयम’ और ‘मालविकाग्निमित्रं’, शूद्रक कृत ‘मृच्छकटिकम’, श्रीहर्ष कृत ‘रत्नावली’, ‘प्रियदर्शिका’ और ‘नागानंद’, भवभूति कृत ‘मालती माधव’, ‘उत्तर रामचरितं’ और ‘महावीर चरितं’, राजशेखर कृत ‘कर्पूरमंजरी’ आदि नाटकों में भी यथास्थान पर्यावरण संरक्षण (environmental protection) की बात कही गई है।

हिन्दी के नाटकों मे भी यह परंपरा अविच्छिन्न रूप से चली आई है।भारतेन्दु कृत ‘चंद्रावली’ एवं ‘प्रेम योगिनी’, जयशंकर प्रसाद कृत ‘ध्रुवस्वामिनी’, मोहन राकेश कृत ‘आषाढ़ का एक दिन’ आदि नाटकों में इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है।
चूंकि आधुनिक युग में नाटक के उत्तराधिकारी के रूप में पारसी थिएटर से होते हुए सिनेमा हमारे समक्ष उपस्थित है। अतः स्वाभाविक उत्तराधिकारी के तौर पर हिन्दी सिनेमा ने भी कम मात्रा में ही सही, किन्तु पर्यावरण की चिंता ज़रूर की है। यहाँ यह तथ्य भी विचारणीय है कि पांचवें दशक से आठवें दशक के बीच बनी अधिकांश फिल्मों में राजा साहबों , राय बहादुरों, जमींदारों एवं धनाढ्यों के महलों, हवेलियों और बंगलों की बैठकों को जानवरों की खालों में भूसा भरकर सजाने तथा दीवारों पर मृत जानवरों के सर टाँगने और नायकों के शिकार के शौक को महिमामंडित करने जैसे दृश्य एवं वृत्तान्त सहज स्वाभाविक रूप मे पेश किए जाते थे।फलतः हिन्दी सिनेमा में पर्यावरण विषयक फिल्मों की संख्या अपेक्षाकृत कम रही है, परंतु जितनी भी फिल्में हैं, उनका संदेश स्पष्ट और प्रभावशाली रहा है।

हिन्दी सिनेमा के इतिहास पर नज़र दौड़ाएं तो पाते हैं कि सन 1946 में आई चेतन आनंद की फिल्म ‘नीचा नगर’ में जल प्रदूषण अर्थात दूषित पानी पीने से गरीब लोगों के बीमार पड़ने की समस्या को दर्शाया गया है। सन 1951 में प्रदर्शित फिल्म ‘संसार’ में नायक आगा नायिका से कहते हैं ‘लखनऊ चलो अब रानी, बंबई का बिगड़ा पानी’ और इस प्रकार फिल्म आज से 70 बरस पहले ही बंबई में फैल रहे जल प्रदूषण की चर्चा हँसी–हँसी में ही कर देती है।

विमल रॉय के निर्देशन में बलराज साहनी के अविस्मरणीय अभिनय से सजी ‘दो बीघा जमीन’ फिल्म सन 1953 में आई थी, जिसमें गरीब किसान के खेत को धोखे से हड़पकर उस पर मिल खड़ी करने तथा गरीब किसान द्वारा अपनी जमीन को बचाने की हर संभव कोशिश करने का करुण कथानक बुना गया है। इसी वर्ष आई राज कपूर की त्रासद फिल्म ‘आह’ में वायु प्रदूषण की चर्चा आई है।शहर की प्रदूषित हवा के कारण नायक की माँ की टीबी से मौत हो जाती है, अतः अपने पुत्र को शहर की प्रदूषित हवा से दूर रखने के लिए नायक राज कपूर के धनाढ्य पिता उन्हें गाँव मे रहने के लिए भेज देते हैं। कालांतर में इस कथानक का उपयोग कई फिल्मों में दोहराया गया।

सन 1957 में आजादी की दसवीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में निर्देशक महबूब खान फिल्म ‘मदर इंडिया’ लेकर आते हैं, जिसमें पर्यावरण (environmental protection) की कथा भी अंतर्निहित है। फिल्म बताती है कि प्रकृति की विनाशलीला के आगे मनुष्य लाचार है और सूखे के कारण किस प्रकार एक परिवार तबाही की कगार पर पहुँच जाता है, लेकिन नायिका राधा (नरगिस) की दृढ़ इच्छाशक्ति उसे विजयी बनाती है। सन 1959 में गीतकार शैलेन्द्र ‘लव मैरिज’ फिल्म में पाश्चात्य कानफाड़ू संगीत उपकरणों से फैल रहे ध्वनि प्रदूषण की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि तीन कनस्तर पीट पीट कर चीखना और ये चिल्लाना, यार मेरे मत बुरा मान, ये गाना है न बजाना है।
सन 1965 में आई यश चोपड़ा निर्देशित फिल्म ‘वक्त’ में भूकंप की विभीषिका वर्णित की गई है कि किस प्रकार भूकंप के कारण एक हँसता-खेलता धनाढ्य परिवार तबाह हो जाता है। इसी साल आई देवानंद की सुपर हिट फिल्म ‘गाइड’ में भी सूखे की समस्या से पीड़ित ग्रामवासियों का अंकन है।

भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की प्रेरणा से हरित क्रांति को ध्यान में रखकर फिल्मकार मनोज कुमार सन 1967 में ‘उपकार’ फिल्म लेकर आते हैं, जिसमें नायक का धरती के प्रति असीम प्रेम वर्णित हुआ है। सन 1971 में आई फिल्म ‘हाथी मेरे साथी’ में वन्य जीवों विशेषकर हाथियों को मनुष्य एवं पर्यावरण का सच्चा साथी दिखाया गया है। इस फिल्म को वास्तव में पूर्णतः पर्यावरण संरक्षण (environmental protection) को समर्पित पहली हिन्दी फिल्म माना जा सकता है। सन 1971 में ही ख्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन में बनी फिल्म ‘दो बूंद पानी’ राजस्थान के अकाल एवं वहाँ के गांवों में महिलाओं द्वारा काफी दूर से पानी भरकर लाने की समस्या पर आधारित थी, जिसमें बांध बनने से इस समस्या का समाधान बताया गया था।
‘जानवर और इंसान’ फिल्म सन 1972 में प्रदर्शित हुई थी, जिसमें नायक शेखर (शशि कपूर) एक बाघ को घायल कर देते हैं, इसके बाद उस बाघ और नायक की जद्दोजहद पर यह फिल्म आगे बढ़ती है। इसी साल आई मनोज कुमार अभिनीत फिल्म ‘शोर’ ध्वनि प्रदूषण से जुड़ती है।

सन 1976 में प्रदर्शित फिल्म ‘माँ’ में जानवरों की अपने नवजात शिशुओं के प्रति अथाह ममता वर्णित हुई है। इस फिल्म में दिखाया गया है कि नायक धर्मेन्द्र जंगल में रहकर सर्कस के लिए जानवरों को पकड़ने का काम करता है, किन्तु एक हथिनी के नवजात शिशु को पकड़ते समय हथिनी उस पर हमला कर देती है, बाद में बदलते घटनाक्रम के कारण नायक पश्चाताप करते हुए सभी जानवरों को मुक्त कर देता है और जंगल की खुशियां लौट आती हैं।

सन 1979 में आई धर्मेन्द्र, रेखा और विनोद खन्ना अभिनीत फिल्म ‘कर्तव्य’ में नायक फॉरेस्ट ऑफिसर बनकर शिकारियों, चंदन एवं हाथी दांत के तस्करों से लोहा लेकर पर्यावरण को बचाने ( environmental protection) में अपनी भूमिका निभाता है। सन 1981 में आई ‘वारदात’ फिल्म में वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक रासायनिक परीक्षण के असफल हो जाने के परिणामस्वरूप टिड्डियों के हमले के कारण किसानों को होने वाले नुकसान और जलवायु परिवर्तन की चर्चा हुई है, जिसे सरकार आतंकवादियों का काम मानकर इसकी जांच अपने सर्वश्रेष्ठ एजेंट गोपीनाथ उर्फ जी-9 (मिथुन चक्रवर्ती) को सौंपती है, जो जादुई बंदूक से इनका खात्मा करके किसानों को राहत पहुंचाता है। इस फिल्म के अधिक सफल न होने के कारण अगले कुछ वर्षों तक पर्यावरण पर आधारित फिल्में प्रायः नहीं बनती हैं। इसी साल प्रदर्शित चक्र’ फिल्म में औद्योगिक कचरे का मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव दिखाया गया है। (क्रमश:)

(नोट :- ये आलेख बड़ा है इस वजह से इसे तीन भागों में प्रकाशित किया जाएगा।)

(प्रो. पुनीत बिसारिया बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी में हिंदी के प्रोफेसर हैं और फिल्मों पर लिखने के लिए जाने जाते हैं। वे  द फिल्म फाउंडेशन ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं तथा गोल्डेन पीकॉक इंटरनेशनल फिल्म प्रोडक्शंस एलएलपी के नाम के फिल्म प्रोडक्शन हाउस के सीईओ हैं।)

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