16वीं शताब्दी के अंत में, 1576 में, पहली बार दुर्गा पूजा इस समय के बांग्लादेश में हुई थी। इसी बांग्लादेश के ताहिरपुर में एक राजा कंस नारायण हुआ जिसने अपने गांव में देवी दुर्गा की पूजा (Durga Puja) की थी।
विवेकानंद विश्वविद्यालय के संस्कृत और दर्शन के प्रोफेसर राकेश दास ने लिखा – राजा कंस नारायण अपनी प्रजा के कल्याण के लिए अश्वमेध यज्ञ करना चाहते थे। उस समय के कुल पुरोहितों ने बताया कि यह यज्ञ रामजी ने सतयुग में किया था, लेकिन कलियुग में शक्ति की देवी महिषासुरमर्दिनी माँ दुर्गा की पूजा करनी चाहिए। कंस नारायण ने धूमधाम से माँ दुर्गा पूजा (Durga Puja) की और तब से आज तक बंगाल में दुर्गा पूजा (Durga Puja) निरंतर हो रही है।
माँ दुर्गा की उत्पत्ति
माँ दुर्गा(Maa Durga) की उत्पत्ति असुरों के राजा रंभ के पुत्र महिषासुर के वध से जुड़ी हुई है। पुराणों के अनुसार, महिषासुर ने अपनी तपस्या से ब्रह्माजी को प्रसन्न किया और वरदान प्राप्त किया कि वह जब चाहे विकराल और भयंकर भैंस का रूप धारण कर सके, और कोई भी देवता या दानव युद्ध में उसे हरा न सके। वरदान पाकर महिषासुर की शक्ति, अहंकार और अत्याचार बढ़ते चले गए। उसका आतंक तीनों लोकों में फैलने लगा।
सभी देवी-देवता और ऋषि-मुनि उसके अत्याचारों से परेशान हो गए। भगवान शिव और विष्णु ने सभी देवताओं के साथ मिलकर एक योजना बनाई, जिसमें एक शक्ति को प्रकट कर महिषासुर का वध करना था। सभी देवताओं ने एक साथ मिलकर एक तेजस्वी रूप में शक्ति स्वरूपा माँ दुर्गा को प्रकट किया।
सभी देवताओं की शक्तियों को एक जगह इकट्ठा करने से एक आकृति की उत्पत्ति हुई। शिवजी ने त्रिशूल, विष्णुजी ने चक्र, ब्रह्माजी ने कमल का फूल, वायु ने नाक, कान, पर्वतराज से कपड़े और शेर प्रदान किया। यमराज के तेज से माँ शक्ति के केश बने। सूर्य के तेज से पैरों की उंगलियाँ, प्रजापति से दांत, और अग्निदेव से आँखें मिलीं। इसके अलावा, सभी देवताओं ने अपने शस्त्र और आभूषण माँ को भेंट किए।
देवताओं के तेज और शस्त्रों से जो देवी प्रकट हुई, वह तीनों लोकों में अजेय और दुर्गम बनीं। युद्ध में अत्यंत भयंकर और दुर्गम होने के कारण इन्हें ‘दुर्गा’ नाम मिला। इसके बाद, शक्ति रूपी माँ दुर्गा और महिषासुर के बीच 9 दिनों तक युद्ध हुआ। इन 9 दिनों में माँ ने 9 विभिन्न रूप धारण किए और महिषासुर का वध किया। इसी कारण नवदुर्गाओं की पूजा (Durga Puja) 9 दिनों तक चैत्र में की जाती है।
माँ दुर्गा के नौ रूप
1. शैलपुत्री (प्रथम दिन): पर्वतराज हिमालय के यहाँ जन्म लेने से इन्हें शैलपुत्री कहा जाता है। इनके पूजन से भक्ति, धन-धान्य से परिपूर्ण रहते हैं।
2. ब्रह्मचारिणी (द्वितीय दिन): यह रूप भक्तों को अनंत कोटि फल प्रदान करने वाला है। इनकी उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की भावना जागृत होती है।
3. चंद्रघंटा (तृतीय दिन): इनकी उपासना से सभी पापों से मुक्ति मिलती है और वीरता में सौ गुना वृद्धि होती है।
4. कूष्मांडा (चतुर्थ दिन): इनकी उपासना से रोग और अशोक दूर होते हैं।
5. स्कंदमाता (पंचम दिन): मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता परम सुखदायिनी हैं।
6. कात्यायनी (षष्ठम दिन): इस दिन इनकी पूजा से अद्भुत शक्ति का संचार होता है और साधकों के शत्रु समाप्त हो जाते हैं। इनका ध्यान गोधूलि बेला में किया जाता है।
7. कालरात्रि (सप्तम दिन): माँ का शरीर काला है, बाल लंबे और बिखरे हैं। गले की माला बिजली की तरह चमकती है।
8. महागौरी (अष्टम दिन): महागौरी के पूजन से समस्त पापों का नाश होता है और सुख में वृद्धि होती है।
9. सिद्धिदात्री (नवम दिन): इनकी आराधना से अणिमा, लघिमा, महिमा, वाक्सिद्धि आदि समस्त नव सिद्धियों की प्राप्ति होती है।
दुर्गा पूजन का महत्व
शरीर, मन और वाणी को पवित्र रखते हुए पूरी श्रद्धा और विश्वास से दुर्गा देवी का पूजन करें और मौन रहें। भोजन हल्का और सुपाच्य लें। इतना करने पर माँ अवश्य ही हृदय में प्रकट होती हैं और बुद्धि को पवित्र बनाती हैं।
जय शेरावाली।
(मृदुला दुबे योग शिक्षक और आध्यात्मिक गुरु हैं.)
ये भी पढ़ें:माता दुर्गा का चौथा रूप है कूष्मांडा, जानें पूजा विधि