अहंकार रहता कहां है?
कैसे अहंकार को देखें? अहंकार मनुष्यों में ही नहीं अपितु समस्त जीव जंतुओं में होता है। अहंकार शरीर में,मन में, वाणी में और विचारों में रहता है। अहंकार को देखने के लिय पहले अपनी सांस की गति को देखो। अपने भीतर जाओ। आंखें बन्द कर अपनी आंखों को देखो, नासिका को देखो अब तुम अपने विचारों तक जाओ और बहुत ध्यान से देखो। तुम एक दैदीप्यमान प्रकाश हो लेकिन तुम अपने ही प्रकाश को अहंकार होने के कारण नहीं देख पाते। तुम बाहर किसी की कृपा के लिय दौड़ पड़ते हो, जबकि तुम स्वयं गुरू हो। तुम्हारे भीतर का प्रकाश ही तुम्हारा गुरू है इसीलिए बुद्ध ने कहा -” अतता हि अततनो नाथो। अतता हि अततनो गति”।। अर्थात तुम स्वयं सर्व शक्तिमान गुरू हो फिर अन्यों को गुरू बनाने के लिए क्यों व्याकुल होते हो। तुम स्वयं ही अपनी एक विशेष प्रकार की दशा बनाते चले जा रहे हो। अपनी दशा के लिय तुम स्वयं जिम्मेदार हो
महर्षि दधीचि वेदों के पूर्ण ज्ञाता और बहुत दयालु थे। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं पाया था। दूसरों का हित करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से वन के पशु पक्षी बहुत प्रसन्न रहते थे।
खुद को दूसरों से श्रेष्ठ नहीं मानते थे पैगंबर मुहम्मद
उन्होंने आत्मविश्वास और अहंकार के बीच का अंतर बताया।बहुत विनम्र रहते और कहते थे कि तुम्हारे भीतर तब तक ईमान नहीं आयेगा जब तक तुम अपने भाई को अपनी तरह से प्रेम नहीं करोगे।सच्चा आत्मविश्वास और आत्म साक्षात्कार खुद को श्रेष्ठ समझने में नहीं है।
व्यक्ति अपनी कम बुद्धि को जानता ही नहीं और अहंकार से भरा होकर खूब मूर्खता दिखाकर अपने आपको बड़ा बताता है।
इस तरह देख पाएंगे अपना अहंकार
पूजा के समय अपनी आंखे बन्द कर लो और बिलकुल सीधे बैठो। अब अपनी आती जाती सांस को देखो। सांस आ रही है और सांस जा रही है। सांस के साथ कोई शब्द, रंग, रुप, आकृति न जोड़ना। तुम बैठे हो और सांस अपने आप आ रही है और अपने आप जा रही है। तुम केवल देखना। देखते रहने के अभ्यास से तुम धीरे धीरे अपने अहंकार को भी देख लोगे और तुम्हें ये समझ आयेगा कि व्यर्थ ही मैं व्याकुल हुआ जाता हूं।
तुलसीदास कहते हैं
“ज्ञानी भगत सिरोमानी, त्रिभुवनपति जान। ताहि मोह माया नर, पॉवर करही गुमान”।।
अर्थात – जो ज्ञानियों में और भक्तों में शिरोमणि हैं एवम त्रिभुवनपति भगवान के वाहन हैं, उन गरुण को भी माया ने मोह लिया। फिर भी मनुष्य मूर्खतावश घमंड किया करते हैं। यह माया शिवजी और ब्रह्माजी को भी मोह लेती है, ऐसा जानकर ही मुनि लोग माया के स्वामी भगवान का भजन करते हैं।
मेरे स्वयं के अनुभव
एक अहंकारी व्यक्ति की दुनिया उसी से शुरू होती है। ” मैं अपने अहंकार का परिणाम हूं”। अपनी तृष्णा से पैदा हुए विचारों को आज देख रही हूं। मुझे मेरी तृष्णा वाले विचार बहुत प्रिय लगे इसलिए उन्हें पाला पोसा और पूरा करने के लिए कर्म किए। वो तृष्णा से, राग से, अहंकार से किए हुए कर्म अब दुखद फल दे रहे हैं तो ज्ञान जागृत हो रहा है। यह अहंकार का ही परिणाम है। मैं का और अहंकार का परिणाम सदैव दुख लाता है ।अपनी अच्छी या बुरी तृष्णायं बहुत प्रिय लगती हैं इसलिय ईश्वर भजन बिना हम सही और गलत के प्रति बेहोश हो जाते हैं।
( मृदुला दुबे आध्यात्मिक चिंतक और योग गुरु हैं। )
यह भी पढ़े: Egotism : ‘मैं’ और ‘मेरा’ की भावना ही अहंकार का कारण है