ईश्वर को लेकर कई बार हम ग्रंथों, शास्त्रों और परंपराओं के आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, परंतु सत्य यह है कि जब तक हम अपने अनुभव से किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुँचते, तब तक हमारी मान्यता मात्र एक विश्वास बनी रहती है, अनुभव नहीं।
धर्म क्या है?
धर्म कोई संप्रदाय नहीं है। प्रकृति के नियम ही धर्म के नियम हैं। धर्म वही है जो प्रकृति के नियमों के अनुसार हो, जो शुद्ध हो, जो कल्याणकारी हो।
“धारण करे तो धर्म है, वरना कोरी बात।
सूरज उगे प्रभात है, वरना काली रात।।”
धारण करने को धर्म कहते हैं , न कि केवल मानने को। इसलिए धर्म और भगवान को अलग-अलग देखने की आवश्यकता नहीं है। भगवान कोई व्यक्ति, मूर्ति या कल्पना नहीं है, बल्कि वही प्राकृतिक सत्य है जो इस सृष्टि को संचालित कर रहा है।
ईश्वर है या नहीं?
जब हम दुख में होते हैं, तो किसी सहारे की आवश्यकता होती है। हमें बताया जाता है कि भगवान हमारे सारे दुखों को दूर कर सकते हैं। परंतु फिर प्रश्न उठता है कि यदि ईश्वर वास्तव में हैं, तो संसार में इतनी असमानता क्यों है? कोई सुखी है, कोई दुखी, कोई अमीर, कोई गरीब, कोई स्वस्थ, कोई रोगी। यदि ईश्वर की सत्ता समान रूप से सब पर लागू होती, तो यह भेदभाव क्यों?
यदि हम यह मान लें कि ईश्वर नहीं है, तो फिर यह भी प्रश्न उठता है कि यह सृष्टि किसने बनाई? कौन इसे चला रहा है? कौन इस पूरे ब्रह्मांड को नियंत्रित कर रहा है?
बुद्ध और ईश्वर का प्रश्न:
भगवान बुद्ध के पास एक राजा आया और पूछा –
“हे तथागत! ईश्वर है या नहीं? आत्मा है या नहीं?”
बुद्ध मौन रहे।
राजा ने दो घंटे तक उत्तर का इंतजार किया, लेकिन बुद्ध ने कुछ नहीं कहा। अंततः राजा निराश होकर लौट गया।
आनंद ने पूछा – “भंते! आप तो संपूर्ण सत्य को जानते हैं, फिर भी आपने राजा के प्रश्नों का उत्तर क्यों नहीं दिया?”
बुद्ध ने कहा –
“आनंद! यदि मैं कहता कि ईश्वर है अथवा नहीं है, आत्मा है अथवा नहीं है ,तो राजा इसे मान्यता बना लेता और अपने राज्य में प्रचार कर देता। फिर वह इसे अपने अनुभव से जानने का प्रयास ही नहीं करता। इसमें उसका कोई कल्याण नहीं था। प्रत्येक सत्य को स्वयं अनुभव करना ही वास्तविक ज्ञान है।”
फिर बुद्ध ने कहा –
“अत्ता हि अत्तनो नाथो”
अर्थात् “तुम स्वयं अपने मालिक हो। तुम्हारी गति तुम्हीं बनाते हो। तुम अपने स्वयं के गुरु हो।”
अनुभव ही सत्य है:
हमारे लिए यह समझना आवश्यक है कि किसी भी मत, विश्वास, या ग्रंथ को आँख मूंदकर स्वीकारना केवल एक धारणा है। वास्तविकता तब तक समझ नहीं आती जब तक उसे स्वयं अनुभव न किया जाए।
बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व को ना तो स्वीकार किया और ना ही अस्वीकार किया उन्होंने कहा कि ईश्वर के अस्तित्व का सवाल एक द्वंदात्मक सवाल है जो लोग ईश्वर में विश्वास करते हैं उनके लिए ईश्वर है और जो लोग विश्वास नहीं करते हैं उनके लिए ईश्वर नहीं है। बुद्ध ने कहा कि ईश्वर के अस्तित्व का सवाल इस बात से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि हम कैसे जीवन जीते हैं उन्होंने कहा कि हमें अपने जीवन को इस तरह से जीना चाहिए कि हम खुश और शांतिपूर्ण रहे उन्होंने कहा कि हमें दूसरों के साथ दया और करुणा का व्यवहार करना चाहिए बुद्ध का मानना था की सभी प्राणी दुख से पीड़ित हैं।
भगवान बुद्ध ने किसी ईश्वर की कल्पना को नकारा नहीं, लेकिन उन्होंने किसी भी मत को अंतिम सत्य के रूप में स्वीकारने की बजाय अनुभव करने पर बल दिया। उन्होंने कहा कि यदि तुम्हें जानना है कि ईश्वर है या नहीं, तो अपने भीतर देखो, अपने मन को जानो, अपने विकारों को दूर करो, और अपने शुद्ध अनुभव से सत्य को प्राप्त करो।
निष्कर्ष
ईश्वर हो या न हो, यह मानने से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि हम अपने जीवन को कैसे जीते हैं। यदि हम अपने मन को विकारों से मुक्त कर लें, यदि हम अपने भीतर शुद्धता और करुणा का संचार करें, तो यही हमारा सच्चा धर्म होगा। यही वास्तविक सत्य होगा।
“अप्प दीपो भव।”
(स्वयं दीपक बनो।)
(मृदुला दुबे योग शिक्षक एवं आध्यमिक चिंतक हैं )
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