Happiness
जो तब उत्पन्न होती है जब कोई व्यक्ति अत्यंत प्रसन्न और संतुष्ट होता है। हर कोई सुख और शांति के लिए प्रयासरत है।
“तस्कीन दिल के वास्ते हर शय है बेकरार।”
सब उसी परमात्मा के लिए बेकरार हैं। हर व्यक्ति परमात्मा को खोज रहा है, लेकिन जिसे भीतर खोजना है, उसे लोग बाहर खोज रहे हैं। जैसे राबिया की सुई झोपड़ी के भीतर थी और वह जानबूझकर बाहर सबके साथ मिलकर उसे ढूंढ रही थी, ताकि समझ आ सके कि परमात्मा और उसका आनंद भीतर ही है।
“कस्तूरी मृग माहि बसे, वन वन ढूंढत जाहि।”
जिस प्रकार कस्तूरी मृग अपनी नाभि में स्थित कस्तूरी की सुगंध को पूरे वन में ढूंढता फिरता है, उसी प्रकार मनुष्य भी बाहर परमात्मा को खोज रहा है, जबकि परमात्मा और आनंद उसके भीतर ही विद्यमान है।
देने का Happiness
स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) ने अपनी माता से प्रसन्न होकर कहा था, “मां, रोटी तो पेट की ज्वाला शांत करने की वस्तु है। इस पेट में न सही, उस पेट में सही।”
वास्तव में, देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है।
मीरा और आनंद फल की प्राप्ति
मीरा को आनंद (Happiness) फल की प्राप्ति के लिए कुल की मर्यादा को त्यागना पड़ा। उन्होंने माता-पिता, भाई-बन्धु को छोड़कर साधु-संतों का संग किया। अपने आँसुओं से प्रेम की बेल को सींचा, तब जाकर उन्हें आनंद(Delight) फल की प्राप्ति हुई।
कबीर का आनंद
कबीर का अंतिम लक्ष्य परम ईश्वर को प्राप्त करना था। उनके लिए ईश्वर का ज्ञान ही आनंद था।
भगवान श्री कृष्ण और आनंद
भगवान श्री कृष्ण का दिव्य शरीर हम लोगों की भाँति जड़ मायिक पदार्थों से नहीं बना है। “भगवान के अंदर-बाहर, चारों ओर आनंद ही आनंद लबालब भरा है।” वेद मंत्र एक स्वर में कहते हैं कि भगवान ही सच्चा आनंद (happiness) हैं।
जागरूकता और आनंद
आनंद (Delight) प्राप्ति के लिए जागरूकता आवश्यक है। आनंद मन की एक क्षणिक अवस्था है, जिसके हम आदी हो सकते हैं। जब यह आनंद उत्पन्न नहीं होता, तो हम व्याकुल हो जाते हैं। इस स्थिति को ईसाई धर्म में “आत्मा की अंधेरी रात” कहा जाता है। आनंद अनियमित और अल्पकालिक होता है, और जब हम इसे महसूस नहीं करते, तो पीड़ित हो जाते हैं।
आध्यात्मिक विकास का यह मार्ग नहीं है। ध्यान का अभ्यास मन को जागरूक बनाने के लिए किया जाना चाहिए, न कि आनंद की खोज के लिए। जब व्यक्ति जागरूकता प्राप्त करता है, तो वह दुख से मुक्त हो जाता है और धीरे-धीरे परम आनंद की ओर अग्रसर होता है।
वेद और आनंद
वेद स्वीकार करते हैं कि जीव ईश्वर का अंश है और आनंद प्राप्ति के लिए हर कोई आनन्द स्वरूप परमात्मा को खोज रहा है।
आदि गुरु शंकराचार्य कहते हैं:
“नर नारी में, नारी नर में आंनद खोजता है, पर में।
सच्चिदानंद तो बैठा आवाज दे रहा भीतर में।।”
अर्थात्, आनंद के सागर रूपी ईश्वर हमारे भीतर हैं।
अष्टावक्र कहते हैं: आत्म तृप्ति ही आनंद है। मैं अतीत के लिए शोक नहीं करता और भविष्य के लिए चिंता नहीं करता। मेरी इंद्रियाँ शांत हो गई हैं।
“आपदः सम्पदः काले दैवादेवेति निश्चयी।
तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वाञ्छति न शोचति।।”
(अष्टावक्र गीता, 11.3)
अर्थात, आपदा हो या संपदा, सब दैवयोग से अपने समय पर आती हैं। यह जानकर मैंने रुकना सीख लिया है। अब मैं शोक नहीं करता और चिंता भी नहीं करता।
मेरे अनुभव
आनंद से भी ऊपर परमानंद की उपलब्धि हेतु तुलसीदासजी का यह दोहा सदैव स्मरण में रखना चाहिए:
“होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क बढ़ावै साखा।।”
अर्थात्, जो रामजी ने रच दिया है, वही होगा। इसलिए व्यर्थ चिंता मत करो। प्रभु के प्रति समर्पण में ही सच्चा आनंद है।
L(मृदुला दुबे योग शिक्षक और आध्यात्मिक गुरु हैं.)
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