भाई भतीजावाद (Nepotism), हिन्दू धर्म का उपहास उड़ाना, माफियाओं का महिमा मंडन करना, कास्टिंग काउच, स्त्रियों को केवल अंग प्रदर्शन का साधन समझना, भोंडी नकल करना, पश्चिमी संस्कृति को महान और अनुकरणीय बताना तथा अपनी संस्कृति की कमियों को बेवजह हाइलाइट करना, शराब और मादक पदार्थों को ग्लैमराइज करना, हिन्दी फिल्मों (Hindi Cinema ) हिन्दी को छोड़कर दुनिया भर की भाषाओं को गैर ज़रूरी ढंग से जगह देना, बुराई की तारीफों के पुल बांधना, अवैध संबंधों को ज़रूरी बताना, गालियों की भरमार करना, स्कूलों कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को पढ़ाई की जगह इश्क मोहब्बत, ड्रग्स सेवन का अड्डा बनाकर प्रस्तुत करना, शिक्षकों, पंडितों और ग्रामीणों की हँसी उड़ाना, देशप्रेम की हँसी उड़ाना और बुजुर्गों के प्रति उपेक्षा का भाव पैदा करना आज यही हिन्दी सिनेमा के लक्षण बनकर रह गए हैं। टीवी और ओटीटी के आने के बाद ये बुराइयां और अधिक तेज़ी से पनपी हैं।
भाई भतीजावाद(Nepotism) का तो यह आलम है कि कपूर खानदान की चार पीढ़ियां, धर्मेंद्र परिवार की तीन पीढ़ियां, अशोक कुमार, शोभना समर्थ, जद्दन बाई, राजेंद्र कुमार, अमिताभ बच्चन, दिलीप कुमार, महेश भट्ट, शाहरुख खान, सलमान खान, आमिर खान, जानिसार अख्तर, अनुपम खेर, चंकी पांडेय, गोविंदा, मिथुन चक्रवर्ती, हेमा मालिनी, श्रीदेवी, लेख टंडन, विनोद खन्ना, डेविड धवन, जैकी श्रॉफ, वीरू देवगन, सलीम खान, रोशन, मुकेश समेत असंख्य अभिनेताओं, लेखकों, गीतकारों, गायकों और फिल्म निर्देशकों की कई पीढ़ियां या तो फिल्म इंडस्ट्री में आ चुकी हैं या आने की कगार पर हैं। हिन्दू धर्म का मजाक उड़ाने के लिए नास्तिक, पीके, ओ माई गॉड, आदिपुरुष, सेक्रेड गेम्स, महाराज जैसी कितनी ही नई पुरानी फिल्मों और ओटीटी कार्यक्रमों के नाम गिनाए जा सकते हैं। दुखद यह है कि इन्हें बनाने वालों में लगभग आधे से अधिक तथाकथित सनातनी हैं। अमिताभ बच्चन के नेतृत्व में माफियाओं का जो महिमामंडन डॉन से शुरू हुआ, वह संजयदत्त की खलनायक से होता हुआ एक विलेन, मिर्ज़ापुर और अभी तक अबाध रूप से जारी है। कास्टिंग काउच का रोग हिन्दी सिनेमा (Hindi Cinema) से होता हुआ भारतीय भाषाओं की सभी फिल्मों तक फैल चुका है। मी टू ने इसकी व्यापकता को खोलकर इस गंदगी को हमारे सामने रखने का काम किया था और आज भी यह गंदगी कालीनों के नीचे दफन है।
हिन्दी सिनेमा(Hindi Cinema) में स्त्री कभी त्याग और आदर्शों की प्रतिमूर्ति हुआ करती थी लेकिन बीते पचास वर्षों से भी अधिक समय से वह ग्लैमर डॉल, कांटा गर्ल, तंदूरी मुर्गी, जलेबी बाई, शीला, मुन्नी, मस्त चीज़ और भी न जाने क्या क्या न कहने योग्य बनकर रह गई है। भोंडी नकल का हाल यह है कि फिल्मों के लिए केवल धुन और कहानियों की ही चोरी नहीं हुई है, बल्कि पूरी पूरी फिल्म ही क्रेडिट दिए बगैर सीन दर सीन उठाकर बना ली गई है, जिसके कई उदाहरण मौजूद हैं। पश्चिमी संस्कृति को महान और भारतीय संस्कृति को हीन बताने की बीमारी साठ के दशक में ही फिल्मों में घुस गई थी, जिसका वीभत्स रूप आज की तथाकथित मसालेदार या मुख्य धारा की फिल्मों में देखा जा सकता है। यही हाल शराब और मादक पदार्थों के सेवन के विषय में भी सत्य है।
जहां तक हिन्दी फिल्मों की भाषा में घटती हिन्दी का प्रश्न है तो साठ के दशक में बोझिल और अत्यंत कठिन उर्दू के शब्दों के अधिकाधिक प्रयोग से इसकी शुरुआत हुई और इसके बाद थाई, जापानी, स्पेनिश, अरबी आदि अनेक विदेशी शब्दों को जबरन घुसेड़कर अंग्रेज़ी स्क्रिप्ट लिखकर हिन्दी सिनेमा में हिन्दी का सत्यानाश किया गया। अवैध संबंधों और तथाकथित लिव इन को आकर्षक दिखाकर बल्कि अब तो समलैंगिकता को भी ग्लैमराइज करते हुए पिछले बीस सालों में फिल्म निर्देशकों ने समाज को नष्ट भ्रष्ट करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है।
ओटीटी(OTT) के आने के बाद से फिल्मों और वेब सीरीज में गालियों की संख्या भी बेतहाशा बढ़ी है। आठवें दशक से शिक्षण संस्थाओं को इश्क मोहब्बत, ड्रग सेवन और अपराध के अड्डे दिखाकर फिल्मों ने शैक्षणिक संस्थाओं की शुचिता पर गहरा आघात किया है। फिल्मों में शिक्षकों और पंडितों की या तो हंसी उड़ाई जाती है या फिर उन्हें अज्ञानी, अल्प बुद्धि का तथा पोंगापंथी दिखाया जाता है। गुरु को साक्षात् ईश्वर या उससे भी बड़ा दर्जा देने वाले देश की फिल्मों में ऐसी दुर्दशा का अंकन वाकई बेहद चिंताजनक है।
आज़ादी से पहले जिस देश को गुलामी से मुक्त करने के लिए शहीदों ने अपने रक्त दिए, उस देश में कुछ कुछ होता है फिल्म में स्कूल में तिरंगे की जगह यूनियन जैक फहराते दिखा दिया जाता है और उसके बाद तिरंगा फहराया जाता है लेकिन हम हंसते हुए इसे देखते हैं और फिल्म को सुपर हिट बनाकर घर चले आते हैं। ऐसे और भी कई फिल्मों के उदाहरण दिए जा सकते हैं लेकिन हमारे दर्शक इससे अप्रभावित रहते हैं। वॉल्यूम कम कर पापा जग जाएगा कहकर और पापा को बेहद आपत्तिजनक ढंग से पेश कर हिन्दी बुजुर्गों की हँसी उड़ाता रहा है। साठ के दशक से ही नायक नायिका के प्रेम के बीच में पिता या मां अथवा दादा जी खलनायक बनकर आते रहे हैं और फिल्म के अंत में नायक नायिका से माफी मांगकर उनको एक करते रहे हैं।
बुजुर्गों को आदर सम्मान देने वाले देश में साठ साल से बुजुर्गों की बेइज्जती हो रही है लेकिन किसी भी पीढ़ी ने उनका पक्ष लेने और विरोध करने की जहमत अब तक उठाई है।
हालांकि बीते दस वर्षों में इनके विरुद्ध कुछ अच्छी फिल्में और ओटीटी कार्यक्रम भी आए हैं, लेकिन उनकी संख्या सिर्फ अंगुलियों पर गिनी जा सकती है। इसलिए आज आवश्यकता इस बात की है कि हिन्दी सिनेमा और ओटीटी से इन दुर्गुणों को ख़त्म करने के लिए संस्थागत स्तर पर प्रयास किए जाएं और कॉरपोरेट के सहयोग से ऐसे कार्यक्रम बनाए जाएं, जो भारत, भारतीय संस्कृति और मूल्यों की स्थापना में सार्थक योगदान कर सकें, वरना हम हमेशा इन्हीं दुर्गुणों को मनोरंजन के नाम पर देखते रहने के लिए अभिशप्त रहेंगे।
(प्रो. पुनीत बिसारिया बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी में हिंदी के प्रोफेसर हैं और फिल्मों पर लिखने के लिए जाने जाते हैं। वे द फिल्म फाउंडेशन ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं तथा गोल्डेन पीकॉक इंटरनेशनल फिल्म प्रोडक्शंस एलएलपी के नाम के फिल्म प्रोडक्शन हाउस के सीईओ हैं।)
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