हिन्दू धर्म में संन्यास का अर्थ संसार को त्यागना तो नहीं, जानें है क्या …

सनातन हिन्दू जीवन परंपरा (Sanatan Hindu tradition of life) के अनुसार जीवन के जो चार वर्णाश्रम हैं उनमें संन्यास(Sanyas) सबसे अंतिम है। जीवन का अंतिम चरण होने की वजह से इसे अत्यंत कठिन माना जाता है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और अंत में संन्यास की बारी आती है। ये सभी कामनाओं को त्यागकर परम सत्ता और परमानंद में रहने की अवस्था है।

संन्यास धर्म अत्यंत कठिन और विरल
Written By : श्याम नारायण प्रधान | Updated on: May 3, 2024 4:26 am

भारत की परंपरा में जीवन को चार वर्णाश्रमों में विभाजित किया गया है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। ब्रह्मचर्य से अर्थ यह है कि अभी ज्ञान अर्जन करने का समय है। इसके बाद आता है गृहस्थ। इसमें मनुष्य अपनी व संसार की बेहतरी के लिए कार्य करता है। अगले चरण में अपने सांसारिक उत्तरदायित्वों के निर्वहन के उपरान्त वानप्रस्थ में प्रवेश करता है यानी अब ऐसी तैयारी करनी है जिसमें संसार का हर राग-द्वेष समाप्त कर ईश्वर की ओर जाना है। संन्यास जब ले लिया तो फिर समस्त सांसारिक दायित्वों से मुक्त होकर तथा समस्त सांसारिक कामनाओं का संकल्पपूर्वक त्याग करके परम ज्ञान, परम सत्ता और परमानन्द की बोध दशा में रहना होता है। 

संन्यास हर किसी के लिए नहीं है

संन्यास धर्म अत्यंत कठिन और विरल है। प्रसिद्ध चिन्तक प्रो. रामेश्वर मिश्र ‘पंकज’ अपनी पुस्तक ‘अद्वितीय समाजशास्त्र’ में कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए संन्यास का न तो कोई प्रावधान है और न ही धर्म शास्त्रों में इसकी व्यवस्था है। आजकल भ्रमवश मान लिया जाता है कि प्रत्येक धर्मनिष्ठ हिन्दू का यह कर्तव्य है कि वह अपने चौथेपन में संन्यास आश्रम में प्रवेश करेगा, परन्तु धर्मशास्त्र ऐसा नहीं कहते हैं। छांदोग्योपनिषद के अध्याय 2, खण्ड 23 का पहला ही मंत्र यह कहता है कि धर्म के तीन स्कन्ध होते हैं- प्रथम है, यज्ञ, अध्ययन और दान। दूसरा है, तप जोकि आचार्य कुल में रहने वाले ब्रह्मचारी द्वारा विशिष्ट तप के रूप में किया जाता है। तीसरा है, जीवन भर आचार्य कुल में रहते हुए ब्रह्मसंस्थ होकर शरीर को क्षीण कर देना। ये तीनों ही पुण्य लोक के भागी होते हैं। 

बाल्यावस्था और संन्यास एक जैसे

संन्यास का मतलब है कि व्यक्ति ने कम से कम एक खास स्तर की मानसिक व शारीरिक गरिमा हासिल कर ली है, जहां उसके लिए भौतिक चीजें महत्वपूर्ण नहीं रह गई हैं। जब आप बाल अवस्था में होते हैं तो आप अधिक वस्त्र नहीं पहनते। लेकिन जैसे ही आप ब्रह्मचर्य में प्रवेश करते हैं, आपके लिए पहनावा बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। गृहस्थ को भी अपने शरीर को ढंककर रखना पड़ता है। लेकिन ब्रह्मचर्य में खुद को सही तरीके से ढंककर रहना पड़ता है, यह नियम है। वानप्रस्थ तो एक तरह की तैयारी है। संन्यास का मतलब एक बार फिर बच्चे की तरह नंगा हो जाना है, एक बार फिर से बच्चे की तरह मासूम हो जाना है। इंसान एक बार फिर तरोताजा हो जाता है, और हर तरह के बोझ से मुक्त हो जाता। 

संन्यास का मतलब जीवन को नकारना नहीं

क्या आपको लगता है कि विकास के इस स्तर पर आकर, समझदारी के इस स्तर पर पहुंचकर किसी सुरक्षा घेरे की जरूरत होती है? इस सख्ती का मतलब जीवन से मुंह फेरना नहीं। सद् गुरु जग्गी वासुदेव कहते हैं कि संन्यास का मतलब जीवन को नकारना नहीं है। संन्यास का मतबल जीवन के उच्चतर मार्ग पर आगे बढ़ना है। हो सकता है कि दुनिया के लिए संन्यास का मतलब किसी चीज़ को या चीज़ों को छोड़ देना हो। लेकिन संन्यास का मतलब यह नहीं है। संन्यास का मतलब तो सबसे ऊंचे को पाना है। तो हमने जो सुरक्षा घेरे तय किए हैं, उन्हें अच्छा होना चाहिए। शुरू में जब आप कोई पौधा रोपते हैं तो उसका सुरक्षा घेरा पौधे से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। और यह सुरक्षा घेरा तब तक महत्वपूर्ण होता है, जब तक पौधा बड़ा नहीं हो जाता।

पूरब की श्रेष्ठतम देन संन्यास 

आचार्य रजनीश ‘ओशो’ कहते हैं कि मनुष्य एक बीज है – अनंत संभावनाओं से भरा हुआ। बहुत फूल खिल सकते हैं मनुष्य में, अलग-अलग प्रकार के। बुद्धि विकसित हो मनुष्य की तो विज्ञान का फूल खिल सकता है और हृदय विकसित हो तो काव्य का और पूरा मनुष्य ही विकसित हो जाए तो संन्यास का।  संन्यास है, समग्र मनुष्य का विकास। और पूरब की प्रतिभा ने पूरी मनुष्यता को जो सबसे बड़ा दान दिया- वह है संन्यास।  संन्यास का अर्थ है, जीवन को एक काम की भांति नहीं वरन एक खेल की भांति जीना। जीवन नाटक से ज्यादा न रह जाए, बन जाए एक अभिनय। जीवन में कुछ भी इतना महत्वपूर्ण न रह जाए कि चिंता को जन्म दे सके। दुःख हो या सुख, पीड़ा हो या संताप, जन्म हो या मृत्यु, संन्यास का अर्थ है इतनी समता में जीना- हर स्थिति में- ताकि भीतर कोई चोट न पहुंचे। अंतरतम में कोई झंकार भी पैदा न हो। अंतरतम ऐसा अछूता रह जाए जीवन की सारी यात्रा में, जैसे कमल के पत्ते पानी में रहकर भी पानी से अछूते रह जाते हैं। ऐसे अस्पर्शित, ऐसे असंग, ऐसे जीवन से गुजरते हुए भी जीवन से बाहर रहने की कला का नाम संन्यास है।

संन्यासी ही वास्तविक अर्थ में अहिंसक

सच पूछें तो केवल संन्यासी ही वास्तव में अहिंसक प्राणी होता है। वह किसी जीव को कष्ट नहीं देता है और अपने अपमान के प्रति भी उदासीन रहता है। वह कभी भी क्रोधावेश में नहीं आता। वह कभी भी असत्य भाषण नहीं करता है, भले ही सत्य बोलने के कारण प्राण जाने का ही जोखिम क्यों न हो। इस तरह का महान अहिंसा धर्म केवल संन्यासी के लिए है, ब्रह्मचारी, गृहस्थ या वानप्रस्थी के लिए नहीं।

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