भारत के ‘स्व’ को परायी दृष्टि से नहीं समझा जा सकता : Suresh Soni

प्रमुख चिंतक, शिक्षाविद् और संघ के अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य सुरेश सोनी ने कहा है कि भारत को अपनी स्वतंत्रता के शताब्दी वर्ष तक ‘स्व’ पर आधारित होने का लक्ष्य हासिल करना है। इस ‘स्व’ को हम परायी दृष्टि से नहीं समझ सकते। इसे समझने के लिए हमें अपने जीवंत इतिहास को समझना होगा।

पुस्तकों का विमोचन करते सुरेश सोनी, राम बहादुर राय और अन्य
Written By : देव कुमार पुखराज | Updated on: August 10, 2024 10:19 pm

Suresh Soni इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए) के समवेत सभागार में केंद्र के कला कोश विभाग की ओर से प्रकाशित दो पुस्तकों- ‘द लैंड, पीपल एंड हिस्ट्री ऑफ उल्लावुर’ और ‘द लैंड, पीपल एंड हिस्ट्री ऑफ कुण्ड्रात्तुर’ के लोकार्पण अवसर पर बोल रहे थे। पुस्तकों का सम्पादन डॉ. जतींदर के. बजाज और श्री एम.डी. श्रीनिवास ने किया है।

कला केंद्र के अध्यक्ष रामबहादुर राय ने भी किया संबोधित

आयोजन को इन सम्पादकों के साथ कला केंद्र के अध्यक्ष रामबहादुर राय, सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी और कला कोश के विभागाध्यक्ष डॉ. सुधीर लाल ने भी सम्बोधित किया। राज्य सभा के पूर्व सदस्य रवींद्र किशोर सिन्हा भी मंच पर अतिथि के तौर पर मौजूद थे।

इतिहास को समझने के लिए हो सकते हैं तीन माध्यम

Suresh Soni ने अपने वक्तव्य में इस बात को रेखांकित किया कि शताब्दी वर्ष में भारत ‘स्व’ पर खड़ा हो, इसके लिए हमें भारत के इतिहास को समझना होगा। उन्होंने प्रमुख चिंतक धर्मपाल के हवाले से कहा कि इतिहास को समझने के तीन माध्यम हो सकते हैं। पहला माध्यम ग्रंथ हुआ करते हैं। दूसरा जरिया हमारे संग्रह किए प्रमाण होते हैं। इनमें पाण्डुलिपियां तथा अन्य स्रोत आते हैं। इतिहास को जानने का तीसरा और सबसे कठिन माध्यम जीवित समाज का अध्ययन होता है।

 Suresh Soni ने दोनों पुस्तकों का जिक्र किया

श्री सुरेश सोनी ने दोनों पुस्तकों में प्रचुर आंकड़ों का जिक्र किया और कहा कि आंकड़े चेतन होते है। शीर्षकों और आंकड़ों को देखने-सुनने वाली सुयोग्य आंखें और कान होने चाहिए। वहीं श्री सोनी ने चेताया कि मानव समाज के अध्ययन का पाश्चात्य तरीका समाज को बांटता है। पश्चिम की अध्ययन प्रणाली मनुष्य के वर्ण, रंग और शरीर की बनावट पर आधारित है। इसी तरह भाषा के अध्ययन का पश्चिमी ढंग किन्हीं भाषाओं को अन्य से श्रेष्ठ साबित करने में लगा रहता है। इनसे अलग भारतीय दृष्टिकोण से अध्ययन में जुड़ाव का भाव हुआ करता है। हमारा दृष्टिकोण उस मनुष्य के निर्माण के अध्ययन पर जोर देता है, जिसने अपने साथ ही समाज के हित के बारे में सोचा। इसके विपरीत पश्चिमी सभ्यता सीधी रेखा वाली है, जो सामने पड़ने वाले को काटती है। श्री सोनी ने कहा कि ये पुस्तकें अलग तरह की हैं। उन्होंने आईजीएनसीए से गांवों पर इस तरह की शोध श्रृंखला कायम रखने की अपेक्षा की।

15 अगस्त से एक दिन 9 अगस्त जन दिवस महत्वपूर्ण होगा

आईजीएनसीए के अध्यक्ष रायबहादुर राय ने 9 अगस्त की तिथि को याद किया, जब गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया था। श्री राय ने 2 अगस्त, 1967 को लिखे डॉ. लोहिया के एक पत्र का हवाला दिया, जिसमें लोहिया 9 अगस्त को ‘जन दिवस’ कहते हैं। वे उम्मीद करते हैं कि एक दिन 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) से 9 अगस्त (जन दिवस) अधिक महत्वपूर्ण बन जाएगा, जिस प्रकार कई देशों में जन क्रांति को याद किया जाता है। श्री राय ने भी चिंतक और इतिहासकार धर्मपाल को याद किया और कहा कि वे जिलों का इतिहास लिखे जाने के पक्षधर थे। ऐसा करने से इतिहास का सही आकलन हो सकेगा।

पुस्तक के एक सम्पादक डॉ. जतींदर के. बजाज ने ‘द लैंड, पीपल एंड हिस्ट्री ऑफ उल्लावुर’ के साथ ‘द लैंड, पीपल एंड हिस्ट्री ऑफ कुण्ड्रात्तुर’ पुस्तक के केंद्र में आए तमिलनाडु के उल्लावुर और कुण्ड्रात्तुर के शोध के दौरान अपने अनुभवों को साझा किया। उन्होंने कहा कि ये समृद्ध, सुंदर, स्वशासी गांव थे। उल्लावुर और कुण्ड्रात्तुर का उल्लेख प्राचीन वल्लभ साहित्य में भी मिलता है। उन्होंने जोड़ा कि थामस मुनरो ने 1813 में माना था कि भारत के गांव कुछ गांवों के जमघट भर नहीं हैं, बल्कि ये सुस्पष्ट एवं सुस्थिर इकाई हैं। इनका सुदीर्घ इतिहास है। गांव दरिद्र नहीं हैं और ये केवल कृषि पर आधारित नहीं हैं।

दूसरे सम्पादक एम.डी. श्रीनिवास ने अपने वक्तव्य में अन्य बिंदुओं के साथ ब्रिटिश साम्राज्य के पहले भारत की राज्यव्यवस्था पर भी प्रकाश डाला। इसके समर्थन में उन्होंने चेंगलापुट्टू जागीर के करीब दो हजार गांवों की प्रशासनिक व्यवस्था, तमिलनाडु में तब की ‘सुथानथिरम’ (स्वतंत्रम) का हवाला दिया, जिसमें विपुल कृषि पैदावार में से समाज को विभिन्न क्षेत्रों को दिए जाने वाले हिस्सों का उल्लेख है।

डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने क्या कहा 

आईजीएनसीए के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी .ने दोनों पुस्तकों के प्रकाशन की तैयारियों को याद किया और कहा कि यह हमारे लिए चुनौती की तरह था। आज संतोष हो रहा है कि डॉ. जतींद्र के. बजाज और एम. डी. श्रीनिवास का बौधिक श्रम पाठकों के समक्ष आ सका है। कला कोश के विभागाध्यक्ष डॉ. सुधीर लाल ने धन्यवाद ज्ञापन किया।

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