जानें कर्म का अर्थ, महत्व और कर्म के प्रकार

बौद्ध धर्म में, कर्म का अर्थ है “क्रिया”, जो हमारे विचारों और भावनाओं से उत्पन्न होती है, जो अक्सर इच्छा और आसक्ति जैसी मजबूरियों से प्रेरित होती हैं।

कर्म
Written By : मृदुला दुबे | Updated on: December 3, 2024 6:05 pm

कर्म और धर्म

कर्म के कारण क्या हैं?

अज्ञानता या चीजों को उनके वास्तविक रूप में न जानना कर्म का मुख्य कारण है। अज्ञान के साथ सहयोगी लालसा जुड़ी है, जो कर्म की दूसरी जड़ है। बुरे कर्म अज्ञानता और तृष्णा के कारण होते हैं। बुद्ध ने “विशुद्धि मग्गा” में लिखा है:

“न तो कोई कर्ता है, जो कर्म करता है; न ही कोई ऐसा है जो फल भोगता है; केवल घटक भाग ही चलते रहते हैं; वास्तव में यही है! सही विवेक।”

सख्ती से कहा जाए तो कर्म और फल दोनों मन से संबंधित हैं। जैसे कर्म अच्छा या बुरा हो सकता है, वैसे ही विपाक – फल – अच्छा या बुरा हो सकता है। जैसे कर्म मानसिक है वैसे ही फल मानसिक (मन का) है। कर्म का बीज जिस प्रकृति का होगा उसी के अनुसार खुशी, आनंद या दुख रूप में अनुभव किया जाता है।
अच्छे कर्म से समृद्धि, स्वास्थ्य और दीर्घायु जैसी भौतिक चीजें प्राप्त होती हैं। जब कर्म शुद्ध नहीं होते तब भौतिक वस्तुएं प्रतिकूल होती हैं और गरीबी, कुरूपता, बीमारी, अल्पायु आदि के रूप में प्रकट होता है। जैसा हम बोते हैं, वैसा ही हम कहीं न कहीं और कभी न कभी काटते हैं। हम आज जो काटते हैं, वह वही है जो हमने वर्तमान में या अतीत में बोया है। संयुक्त निकाय में कहा गया है:
“जैसा बीज बोया जाएगा, वैसा ही फल मिलेगा, अच्छा करने वाला अच्छा फल पायेगा, बुरा करने वाला बुरा फल पायेगा, बीज बोओ और तुम उसका फल चखो।”

कर्म अपने आप में एक नियम है, जो किसी बाहरी, स्वतंत्र शासक एजेंसी के हस्तक्षेप के बिना अपने क्षेत्र में कार्य करता है।

बौद्ध दृष्टिकोण से, वे किसी अलौकिक, सर्वज्ञ शासक शक्ति द्वारा किसी आत्मा को दिए गए पुरस्कार और दंड नहीं हैं

कर्म और धर्म

बुद्ध के अनुसार कर्म –
कारण और प्रभाव वह मूल सिद्धांत है जो कर्म की नींव बनाता है। मूल विचार यह है कि बिना कारण के कुछ भी अस्तित्व में नहीं आ सकता है और कुछ कारण कुछ प्रभाव लाते हैं। उदाहरण के लिए, जौ के बीज से केवल जौ ही उगेगा, चावल या कोई अन्य पौधा नहीं।

इसी तरह, अगर आपके अंदर क्रोध के कर्म बीज हैं और उस क्रोध का आपने धैर्य के अभ्यास से दूर नहीं किया तो अशांति ही आएगी।

महावीर स्वामी कहते हैं कि – इस धरती पर जितने भी प्राणी हैं, वे सब अपने-अपने संचित कर्मों के कारण ही संसार में चक्कर लगाया करते हैं। अपने किए कर्मों के अनुसार वे भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना प्राणी का छुटकारा नहीं होता।

कर्म कुछ समय के बाद भाग्य हो जाता है। और भाग्य कुछ समय मे कर्म बन जाता है।

कर्म ही भाग्य है और भाग्य ही कर्म है

कर्म तीन तरह के होते है :

सात्विक कर्म – ऐसे कर्म जिसमे प्रेम, दया, दान, सत्य, अच्छाई, निष्ठां, निस्वार्थ, माफ़ करना, आदि समाहित हो , व्यक्ति किसी भी कार्य को करने के लिए स्वार्थ से न भरा हो , पद, सम्मान आदि के लोभ से न भरा हो।

तामसिक कर्म – तामसिक कर्म वो होते है जिसमे व्यक्ति काम(sex), वासना, लोभ, ईर्ष्या , पद, अहंकार, लालच, आदि से भरा होता है | उसके जीवन का लक्ष्य केवल लोभ ही है | ज्ञानीजनो, का सम्मान नही करते | सदा ऐसे लोग से बहस करते है व् उनका अपमान करते है ऐसे लोगो की संतान जिद्दी, झक्की, दुष्ट, लोभी, लालची स्वार्थ से भरी होती है रोग होने पर भी ये अपने जिद का त्याग नही करते।

राजसिक कर्म – यह वो लोग होते है जो दान भी इसलिए करते है की उन्हें लोग दानी कहे।

कर्म करने का अधिकार हाथ में है फल का अधिकार हाथ में नहीं है। कर्म का फल कुदरत के हाथ में है जैसा कर्म वैसा फल यह प्रकृति का नियम है। इस नियम को लोग ताक पर रख देते हैं और अपने मनमानी कर्म करते हैं। लेकिन जब उसे अच्छे कर्म का अच्छा फल आता है और बुरे कर्म का बुरा फल आता है तो ईश्वर की दुहाई देते हैं।भाग्य की दुहाई देते हैं। कर्म से भाग्य बनता है। अच्छा कर्म करोगे तो अच्छा भाग्य बनेगा, बुरा कर्म करोगे तो बुरा भाग्य बनेगा कोई भी अपने कर्म के फल से नहीं बच सकता।

ज्ञानेंद्रियों व कर्मेन्द्रियों पर संयम स्थापित करके किसी भी व्यक्ति के द्वारा दुरूह से दुरूह लक्ष्य को साधा जा सकता है और जटिल से जटिलतम परिस्थितियों पर काबू पाया जा सकता है।

कर्म और धर्म

श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में स्पष्ट कर दिया है कि-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते। सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ अर्थात कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फलों में कभी नहीं… इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो।

गोयनकाजी कहते हैं –
“कुदरत लेती पक्ष न, करती नहीं लिहाज। उसको वैसा फल मिले, जिसका जैसा काज।।”

चोरी करेंगे तो पहले अपना मन को लोभ से भरेंगे, हत्या करेंगे तो अहंकार से भर लोगे, झूठ बोलेगें तो मन को कमजोर बना लेंगे। इस प्रकार कर्म का फल मिलना निश्चित है। कर्म के भीतर उसका वैसा ही फल पहले से ही मौजूद है। फल कर्म से अलग नहीं है। इसलिए बहुत सोच विचार कर शुद्ध कर्म ही करने का संकल्प लिया जाए। लोभवश किया अशुद्ध कर्म बहुत दुख लाता है।

कर्म करते समय बहुत सावधान रहना है। यदि कर्म को सावधानी से नहीं किया तो — “अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।” अर्थात कर्म करते समय सतर्क रहना था। कर्म के फल से कौन बचा? कोई नहीं, कोई नहीं.

 

(मृदुला दुबे योग शिक्षक और आध्यात्मिक गुरु हैं)

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