उत्तर प्रदेश की राजनीति में स्वयं को बहुमूल्य प्रमाणित करने की जुगत में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर पुनः भाजपा गठबन्धन में शामिल हो गए हैं। उन्हें इस बार के मंत्रिमण्डल विस्तार में मंत्री पद दिया गया है। यानी चुनावी राजनीति में अपनी कीमत बताने व मनवाने की राह में वे एक नई रेखा खींच चले हैं क्योंकि लगे हाथों उन्होंने भारी भरकम बयान भी उछाल दिए हैं। अब कोई माई का लाल है तो उन्हें थाम के दिखाए। उनकी व्यग्रता समझी जा सकती है। सपा में अखिलेश यादव के सानिध्य में वे जिस भूमिका और भाव को पाने की मंशा रखते थे, वह पूरी नहीं हो पाई। उन्हें तो राज्य भर में जितना विस्तार अपनी पार्टी का करना था, वह अखिलेश ने होने नहीं दिया। ऐसा होता तो वे न तो सपा से दूर जाते और न ही कम सीटों वाला टोकरा उनके हिस्से आता। वे तो पीले गमछे की धमक और हनक पूरे राज्य में मनवाना चाहते हैं। सबके मुख से यह भी सुनना चाहते हैं कि उनसे बड़ा नेता अभी कोई है नहीं उत्तर प्रदेश में। सपा में जो हैसियत आजम खान की होती थी, उसे पाने की लालसा अधूरी रह गई। लिहाजा, कांशीराम जी के सानिध्य में अपनी राजनीति का ककहरा सीखने वाले अब भाजपा में मोदी की गारण्टी के साथ हो लिए।
वस्तुतः जाति की राजनीति के समीकरण में राजभर जाति के आदिपुरुष बनने को लालायित ओमप्रकाश कभी बनारस में टेंपो चलाया करते थे। आज वे राज्य की राजनीति के सुनहरे रथ के सारथी बनना चाहते हैं। वे यह भी चाहते हैं कि उनकी जाति को अन्य पिछड़ा जाति से निकाल कर अनुसूचित जनजाति श्रेणी में रखा जाए। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में उन्हें इसी श्रेणी में रखा गया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलने के बाद ऐसा प्रस्ताव केन्द्र को भेजा गया है। समय बदला है तो राजभर के सुर भी बदले हैं। कभी कहते थे कि योगी को अपने मठ में चले जाना चाहिए। किन्तु आज उन्हीं के साथ शपथ ले रहे हैं।
भाजपा भी उत्तर प्रदेश में जातियों का समीकरण साधने के प्रयास में राजभर और दारा सिंह चौहान जैसे नेताओं को उनके तमाम तीखे व अनावश्यक बयानों के बावजूद गठबन्धन में शामिल कर रही है। विपक्ष को दन्तहीन करने की एक राह यह भी है। ऐसे नेता अपने बूते चुनाव जितवा पाएंगे कि नहीं, यह कहना तो कठिन है किन्तु गठबन्धन के प्रत्याशियों की हार का कारण बन सकते हैं। इसीलिए भाजपा भी स्वागत कर रही है। अब ये योगी के प्रत्यक्ष दखल से आए हैं या अमित शाह के आशीर्वाद से, आ तो गए ही हैं। जातिगत राजनीति की हर बुराई के बावजूद जातिगत समीकरण साधना ही पड़ता है। यह लोकतंत्र की जीत है या हार, कौन निर्णय देगा। वैसे भी 400 सीटें पार करने का दबाव अपना काम कर ही रहा है।
हालांकि, ओम प्रकाश राजभर अपने हिस्से तो ‘राज्य भर’ चाहते हैं यानी अपने मन की लोक सभा सीटें लेना चाहते हैं उत्तर प्रदेश में। इतना ही नहीं बिहार में भी एक सीट पर दृष्टि टिकाए हैं। किन्तु दाल कितनी गलती है, शीघ्र ही स्पष्ट हो जाएगा। वैसे राजनीतिक सौदेबाजी एक स्वीकृत मार्ग है। सब करते हैं। राजभर भी कर रहे हैं। पेंच फंसाकर अपना काम निकालना ही राजनीतिक सूझबूझ का परिचायक है। सुभासपा भी अपना जातिगत पेंच फंसाकर सीटें निकालना चाहती है। चर्चा में भी रहना है, समीकरण भी साधना है, लाभ भी लेना है, जुझारू व कर्मठ नेता होने का तमगा भी लेना है, पिछड़े होने का राग भी आलापना है, समय-समय पर सींग भी दिखानी है ताकि कोई हल्के में न ले, यानी बहुकला सम्पन्न होना एक अनिवार्यता है राजनीति की। राजभर भी राजनीति के आकाश को पीले रंग से रंगने का हुनर साध रहे हैं। कितना सधेगा, समय बताएगा।
वैसे सुभासपा के अध्यक्ष भी वही कर रहे हैं जो अन्य जातिवादी पार्टियों के नेता करते आए हैं। जाति के सम्मान के नाम पर, पिछड़े होने के नाम पर हिस्सा तो चाहिए। लालू हों, मुलायम सिंह-अखिलेश हों, कुशवाहा हों, पासवान हों, मायावती हों, ऐसे तमाम नेता जातिगत पीड़ा की पताका को ही विजय पताका बनाना चाहते हैं। सामाजिक न्याय के नारों से जब लालू ने अपना आकाश पाटा था तो राजनीति की नई करवट दिखी थी किन्तु ऐसे सभी नेता जो समग्रता की सतहों के काटकर अपनी अलग दीवार खड़ी करने को ही अपना अंतिम लक्ष्य माने बैठे हैं, क्या कभी उस अपनी जाति में अपनी पैठ, धमक, व स्वीकार्यता से आगे चलकर उस जाति का व्यापक हित कर पाएंगे? राजभर कोई अपवाद नहीं हैं और हो भी नहीं सकते हैं क्योंकि राह जब बनी ही गलत दिशा में है तो अपेक्षित लक्ष्य तक पहुँचना कैसे सम्भव होगा। वैसे राजनीति अपनी राह चलती रहेगी।