साक्षी अबोला
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किसी का मैं दीपक, किसी का दिया
शलभ का सनम, मैं जागा, जग सोया।
माटी का नाज़ुक तन, ये लाल रंग,
चाक पर घूमा, आग ने संजोया।
सूर्य का मुझ पर है अटूट भरोसा
तमस मिटा सकूँ,दिया मुझे उजोरा।
आकार में छोटा हूँ फिर भी डटा हूँ
हो आला, आँगन अटारी, झरोखा।
हवा करती है साज़िश मेरे ख़िलाफ़
झपकती लौ साथ ख़ुद को बटोरा।
उजाले की आत्मा मुझ में बसी है
जीवन संग मेरा नाता अनोखा ।
जन्म, मरण, पूजा, अर्चन, तीज त्योहार
सब में पुनीत, मैं न माँगूँ निहोरा।
आशादीप, विजयदीप, अथ, इति दीप
अग्नि भर उर में साक्षी रहा अबोला।
-पवन सेठी
(भारतीय फिल्म्स और टेलीविजन में पिछले 36 वर्षों से कथा, पटकथा,संवाद लेखक. 7000 से अधिक एपिसोड प्रसारित.कृष्ण प्रज्ञा पत्रिका के प्रकाशक और संपादक. दो कविता संग्रह शीघ्र प्रकाशित.)
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चाँद रोज़ मुझसे बातें करता है।
फुर्सत में मुलाकातें करता है।
इतने दौर देखें हैं चाँद नें इंसानों के।
लुटते देखा है उसे हाथों में हैवानों के।
मज़हबी झगड़े देख के घबराता है।
इसीलिए बादलों के पीछे छुप जाता है।
इंसान इक दूजे से नफरत क्यों है करे?*
कभी कभी ये सवाल भी उठाता है।
जवाब होता तो दे भी देता।
चुप रहता हूँ तो वो मुस्कुराता है।
कालों, गोरों में बंटी हुई दुनिया।*
ऊँच, नीच में पटी हुई दुनिया।*
मेरे तेरे में गुत्थमगुत्था है।*
ज़मीन पर लकीरों से बंटी दुनिया।
झूठों, फरेबियों से सती दुनिया।*
लड़ने झगड़ने में जुत्तमजुत्ता है।*
चाँद हर रोज़ का तमाशाई है।
सारी दुनिया बनी हरजाई है।
चाँद इसीलिए रोज़ चला जाता है।
धरती पर उतरने को डरता है।
चाँद रोज़ मुझसे बातें करता है।
फुर्सत में मुलाकातें करता है।
मजहबी दंगों से घबराता है।*
पता नहीं क्यों, पर गुमसुम हो जाता है।*
चाँद रोज़ मुझसे बतियाता है।
हर दिन मेरा हाल लेने आता है।
फर्क कुछ भी न मगर पाता है।
मायूस हो के रोज़ चला जाता है।
– सुभाष सहगल
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आदमी होने के जश्न में
साँझ ढले
अधसोये दरख्तों पर
उड़कर-उड़कर आ बैठे हैं
दिनभर के थके-मादे
प्रकृति-पोषक तमाम परिंदे
अपनी चोंचों में दानों की तरह दाबे
एक भयाक्रांत थरथराहट
नवजात बच्चों को
चुगाने के लिए।
खर्राटे लेने लगेगी
काली डरावनी रात
पसर जाएगा वीभत्स अँधेरा चारों ओर
आयेंगे कुछ अनहोने लोग तब
पहले चंदन के पेड़ों को पूजेंगे
रोली-चन्दन लगायेंगे
कलावा बाँधेंगे, नारियल फोड़ेंगे
धूप,जल, फल-फूल-चढ़ायेंगे
परिक्रमा करते हुए बुदबुदायेंगे
कोई अस्पष्ट असुर- विध्वंसक मंत्र
और फिर – और फिर – और फिर
बडे़-बडे़ आरों-कुल्हाडों से
अपने क्रूर जल्लादी हाथों से
करेंगे कत्लेआम, अट्टहास करते हुए
बेजुबान दरख्तों का बेरहमी से
बेचारे परिंदे भी बेमौत मारे जाएँगे
पेड़ों के साथ
दिन में वही अनहोने लोग
वृक्षारोपण पर्व मनाएँगे
वनमहोत्सव करेंगे
बहेलियों के पिजरों से
पंछियों को आजाद कराएँगे
घर-घर गौरैया घर बाँटेंगे
बेजुबान पंछियों को दाने चुगाएँगे …
पानी से लबालब भरीं मलसियाँ सजाएँगे
और फिर
आदमी होने के जश्न में गुम हो जाएँगी
दरख्तों और परिंदों की
दिल चीरनेवालीं चीत्कारें
हमेशा-हमेशा के लिए
वन–नदी-पर्वत-पंछियों को
आसानी से निगल जाएँगी
पेड़ मर जाएँगे तो
आदमी कैसे जिंदे रहेंगे…?
आइए !
इस सवाल के जबाव ढूँढें….??
दूसरों से क्यों
खुद से क्यों न पूछें……???
– डॉ० रामशंकर भारती
जालौन, उ.प्र
दो कविता संग्रह, दो ललित निबंध संग्रह व एक आलोचना की पुस्तक प्रकाशित।हिंदुस्तान एकेडेमी प्रयागराज उ०प्र० का वर्ष 2024 का एकेडेमी सम्मान।
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एक नन्हे बालक नें कल पूछा एक सवाल।
दिवाली क्यों मनाते हैं हम लोग हर साल?
सोचा राम जी की कहानी सुना दूँ।
बुराई पर अच्छाई की जीत की बात बता दूं।
लक्ष्मी पूजन का महत्त्व जता दूं।
फिर सोचा बच्चे को ये सब क्या बताना।
अच्छा है उसे सरलता से समझाना।
” इस दिन लोग आपसी झगड़े छोड़ कर गले मिलते हैं,
मिठाईयां बांटते हैं,उपहार बांटते हैं।
पटाखे जलाते हैं, खुशियां मनाते हैं।”
बच्चा मुस्काया,थोड़ा शर्माया,
थोड़ा सकपकाया, फिर फरमान सुनाया।
“पर ये सब करने के लिए पूरा साल इंतज़ार क्यों?
ये तो हर रोज़ करना चाहिए।
हर रोज़ बैर द्वेष भूल कर गले मिलना चाहिए।
हर रोज़ ख़ुशी मनानी चाहिए।
हर रोज़ पिकनिक मनानी चाहिए।
हम बच्चे तो हर रोज़ दीवाली मनाते हैं।”
बच्चे की बात में दम था, मेरा मुंह बेदम था।
निरुत्तर हुआ था मैं, सोच में पड़ा था मैं।
हम बड़े क्यों उलझनों में उलझ जाते हैं?
क्यों नहीं हम हर रोज़ दीवाली मनाते हैं?
क्यों नहीं इक दूजे को गले लगाते हैं?
सवाल का जवाब ढूंढ़ रहा हूँ मैं,
आपको मिले तो मुझे भी बता देना।
फिलहाल सबको दीवाली मुबारक।
ज़रा अच्छे से दीवाली अवश्य मना लेना।
हो सके तो बच्चे की बात पर भी ध्यान दे लेना।
– सुभाष सहगल
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संचालक
श्रोता, वक्ता, मंच का करते जो अपमान|
मनमौजी संचालकों को सहना न आसान||
अपनी अपनी हांकते चमचों संग दो चार|
साहित्यिक हर मंच से करें स्वरुचि प्रचार||
निंदा के वे पात्र सभी संचालक मुझको लगते|
जो तत्क्षण पद का दुर्प्रयोग कर भेदभाव करते||
नेकाचार से जब उपचार न इनका होते दिखता|
दर्पण दिखलाने को कवि कुछ ऐसा लिखता||
बने निडर निष्पक्ष लोकप्रिय संचालक|
गर्व हमें हो मानो आप हमारे चालक||
-रमा शुक्ला ‘सखी’,
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