पुष्पा जी के उपन्यास “हमराज़ बनीं परछाइयाँ” पढ़ते हुए आपको इस बात का एहसास होगा कि उपन्यास की भाषा बहुत ही सरल और प्रवाहमान है. ये उपन्यास इसके प्रमुख पात्र ‘कांता ‘के सम्पूर्ण जीवन की व्यथा कथा है. उपन्यास में घटनाक्रम बहुत ही स्वाभाविक ढंग से दिखाया गया है. उत्तर भारत के मध्य वर्गीय परिवार में किसी सामान्य युवती के साथ कितनी घटनाएं -दुर्घटनाएं होती है पर कांता कभी भी हिम्मत नहीं हारती.
किसी विवाहित युवती पर यह आरोप लगे कि उसने अपने पति की हत्या की है प्रायः उसे जीवन पर्यंत एक अपराधी ही बना देगा पर इस उपन्यास की मुख्य पात्र कांता बहुत धैर्य और संयम के साथ आजीवन लड़ती रहती हैं. उपन्यास के दूसरे प्रमुख पात्र हैं उनके बड़े भाई विवेक.एक तरह से चट्टान की तरह उनके साथ खड़े रहे हैं.
कांता के जीवन भर के संघर्ष को देखकर लगता है कि इस उपन्यास में “महाकाव्य” के तत्व है. एमिली ब्रोंटे के अंग्रेज़ी उपन्यास ‘वेदरिंग हाइट्स’ की याद आती है इस उपन्यास को पढ़कर . इस उपन्यास के सारे पात्र अपने आस पास के लोग जैसे लगते हैं .उपन्यास के पात्रों को बहुत सहजता से, सरलरता से विकसित किया किया है. पात्रों का विकास ‘आर्गेनिक’ लगता है, ‘वेजिटेटिव’ नहीं है. यहाँ तक कि कांता के भाभी का चरित्र भी बहुत स्वाभाविक लगता है. भाभी की बेटी गुड़िया नए युग के किसी मध्यवर्गीय शिक्षित परिवार की युवती जैसी है.विवेक जी की पत्नी, बेटी के व्यवहार में परिवर्तन बहुत स्वाभाविक है आखिर उन्होंने किडनी जो डोनेट किया है. नपुंसकता के प्रति समाज के दृष्टिकोण की भी बहुत विश्वसनीय ढंग से चर्चा की गई है. थोड़ा अविश्वसनीय ज़रूर लगता जब कांता के दोनों बच्चे उसे अपने माँ के रूप में स्वीकार कर लेते हैं . उपन्यास की भाषा प्रांजल है. उपन्यास को पढ़ते हुए लगता है सारा दृश्य कैमरा लगाकर दिखाया जा रहा है. उपन्यास बहुत रोचक है. एक बार शुरू करने पर इसे बीच में छोड़ना नहीं चाहेंगे ! उपन्यास बहुत ही पठनीय और संग्रणीय है . उपन्यास का शीर्षक और मुखपृष्ठ आकर्षक है.
उपन्यास: हमराज़ बनीं परछाइयाँ. लेखिका: पुष्पा पांडेय पृष्ठ:175,प्रकाशक: बोधि प्रकाशन , प्रकाशन :2025 मूल्य:रु 275.

(प्रमोद कुमार झा तीन दशक से अधिक समय तक आकाशवाणी और दूरदर्शन के वरिष्ठ पदों पर कार्यरत रहे. एक चर्चित अनुवादक और हिन्दी, अंग्रेजी, मैथिली के लेखक, आलोचक और कला-संस्कृति-साहित्य पर स्तंभकार हैं।)
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यह लेख “हमराज़ बनीं परछाइयाँ” को केवल एक उपन्यास की तरह नहीं, बल्कि स्त्री-जीवन के दीर्घ संघर्ष और सामाजिक पूर्वाग्रहों की सघन कथा के रूप में सामने लाता है। समीक्षा की सबसे बड़ी विशेषता इसकी संतुलित और संवेदनशील दृष्टि है, जहाँ कथानक, पात्र और भाषा—तीनों का आकलन सहजता से किया गया है। कांता के जीवन को ‘महाकाव्यात्मक संघर्ष’ के रूप में देखना और पात्रों के विकास को ‘आर्गेनिक’ कहना आलोचनात्मक समझ का प्रमाण है। लेख यह स्पष्ट करता है कि यह उपन्यास न केवल रोचक और पठनीय है, बल्कि मध्यवर्गीय स्त्री के धैर्य, आत्मसम्मान और समाज से सतत टकराव की विश्वसनीय तस्वीर भी प्रस्तुत करता है, जिससे यह समकालीन हिन्दी उपन्यासों में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप के रूप में उभरता है।