मेरे विचार से हिन्दी सिनेमा(Hindi Cinema) के पतनोन्मुख(Downfall) होने के लिए सबसे बड़ा कारण है अच्छी और मौलिक कहानियों का अभाव होना। अच्छी कहानी न होने से पुरानी कहानियों को ही या पश्चिम की किसी भोंडी फिल्म की कहानी उठाकर हिन्दी सिनेमा(Hindi Cinema) में रख देने की प्रवृत्ति मौलिकता को नष्ट करती है और भारतीयता से उसका तालमेल न होने के कारण वह कहानी हमसे जुड़ पाने में असफल रहती है।
दूसरा कारण है भेड़चाल की प्रवृत्ति
आजकल एक विषय के हिट होने पर उसी विषय पर लगातार फिल्में लाने की होड़ से दर्शक खुद को ठगा हुआ महसूस करता है और बासीपन फ़िल्मों को मौलिकता एवं नएपन से वंचित कर देता है।
भाई भतीजावाद ने भी हिन्दी सिनेमा की दुर्दशा करके रख दी है। इससे अच्छी प्रतिभाएं मौका पाने से वंचित रहती हैं और स्टारों के पुत्र पुत्रियां रिश्तेदार प्रतिभा न होने पर भी लगातार फिल्में हासिल करते रहते हैं।इससे श्रेष्ठ कलाकारों को अवसर नहीं मिलता और वे भीड़ में कहीं खोकर रह जाने को अभिशप्त हो जाते हैं।
साहित्य से दूरी रखना भी हिन्दी सिनेमा के पतन का बड़ा कारण
इससे सिनेमा की स्तरीयता में गिरावट आती है और अच्छे गीतकारों के स्थान पर कानफोडू बेसिरपैर के गीत लिखने वालों को प्रश्रय देने से फिल्मों के गीतों की गुणवत्ता में भी दिन प्रतिदिन गिरावट देखी जा रही है। इधर सिनेमा में एक नया चलन देखने को मिल रहा है। वह यह कि फिल्मकार किसी फिल्म का अगला भाग बनाने की होड़ में अंत के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।
फिल्मकार भारत की नब्ज पकड़ पाने में असफल
पश्चिम से आयातित इस प्रवृत्ति ने हिन्दी सिनेमा(Hindi Cinema) का बड़ा नुकसान किया है। हिन्दी सिनेमा की एक बड़ी पुरानी बीमारी है भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म को हेय दृष्टि से देखना। इसके कारण फिल्मकार भारत की नब्ज़ पकड़ पाने में असफल रहते हैं और रही सही कसरओवरसीज बिजनेस को प्रमुखता देकर उन्हीं के अनुरूप कहानी लिखकर फिल्मकार पूरी कर देते हैं।
हिन्दी सिनेमा(Hindi Cinema) हिन्दी से हिन्दी को लगातार दूर करने की कुचेष्टा भी की जा रही है। इसके लिए अतरंगी शब्दों का प्रयोग, देशी विदेशी भाषा के गैर ज़रूरी और अज्ञात शब्दों को प्रयोग में लाया जा रहा है और हिन्दी सिनेमा(Hindi Cinema) की ऐसी शब्दावली तैयार करने का षडयंत्र रचा जा रहा है, जिसमें हिन्दी ही न हो।
खानत्रयी, कपूर्स, अक्षय कुमार, अजय देवगन, देओल बंधु इत्यादि ने मिलकर नए और श्रेष्ठ कलाकारों की अगली पीढ़ी तैयार न होने देने की चेष्टा की है और ये इसमें पूर्णतः सफल रहे हैं। इनके परिवार के दोयम दर्जे के अभिनेता भी फिल्म जगत में छाए हुए हैं क्योंकि उन्हें ही मौके दिए जा रहे हैं।
हिन्दी सिनेमा(Hindi Cinema) में अत्यधिक अंग प्रदर्शन और गालियों को शामिल करने की होड़ है, जो ओटीटी(OTT) के आने के बाद से महामारी के रूप में हमारे सामने आई है, जिसने हिन्दी की मधुरता को धीरे धीरे सिनेमा से गायब करने का काम किया है।
आम जनता फिल्मों से हो रही दूर
आजकल हिन्दी सिनेमा हाई सोसायटी (High society) और मल्टी प्लेक्स थिएटर(Multi Plex Theater) के लिए फिल्म बनाने को प्रमुखता दे रहा है। इससे आम जनता हिन्दी फिल्मों से लगातार दूर हो रही है। रही सही कसर सिनेमा के टिकटों के आसमान छूते दाम पूरी कर रहे हैं।
इससे आम जनता के लिए स्वस्थ और सस्ता मनोरंजन देने वाला सिनेमा अब उनकी जेब की पहुंच से बाहर होता जा रहा है। इसी कारण अब फिल्मों से गांव लगातार गायब होते जा रहे हैं। हिन्दी सिनेमा में संवेदनशील निर्देशकों का अभाव होना या उन्हें आगे न आने देना भी हिन्दी सिनेमा के पतन(Downfall) का बड़ा कारण है।
खलनायकों का महिमा मंडन
बेसिर पैर की कहानियों पर फिल्में बनाने वाले निर्देशकों पर प्रोड्यूसर हाथ खोलकर पैसे खर्च कर रहे हैं और संवेदनशील निर्देशकों और जमीन से जुड़ी कहानियों पर फिल्म बनाने वाले को कोई पूछता तक नहीं है। अंडरवर्ल्ड से आ रहे पैसे ने खलनायकों का महिमा मंडन किया है और नैतिकता, जीवन मूल्य और आदर्शों का मखौल उड़ाना शुरू कर दिया है। ऐसे में अच्छी फिल्में कैसे बनेंगी। हिन्दी सिनेमा के फिल्मकार इतने बड़े अंग्रेज़ हैं कि वे अंग्रेज़ी में लिखी स्क्रिप्ट और संवादों का प्रयोग करते हैं।
इससे स्क्रिप्ट और प्रस्तुतीकरण में भारतीयता और हिन्दीत्व भला कैसे आ सकता है! आज का हिन्दी सिनेमा देश के बदल रहे समाज की नब्ज़ पकड़ पाने में विफल रहा है और वह हमारी वास्तविक समस्याओं से आँखें मूंदे हुए है। इस वजह से वह देश की वास्तविक समस्याओं का अंकन कर पाने में विफल रहा है। मुझे लगता है कि जब तक भारतीय सिनेमा विशेषकर हिन्दी सिनेमा इन समस्याओं पर ध्यान नहीं देगा और इन कमियों को दूर नहीं करेगा तब तक उससे अच्छी फिल्मों की उम्मीद करना व्यर्थ है।

(प्रो. पुनीत बिसारिया बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी में हिंदी के प्रोफेसर हैं और फिल्मों पर लिखने के लिए जाने जाते हैं। वे द फिल्म फाउंडेशन ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं तथा गोल्डेन पीकॉक इंटरनेशनल फिल्म प्रोडक्शंस एलएलपी के नाम के फिल्म प्रोडक्शन हाउस के सीईओ हैं।)
ये भी पढ़ें:कैसा होगा भारतीय विशेषकर हिन्दी सिनेमा का भविष्य