ऋषि उद्दालक और श्वेतकेतु का परिचय:
ऋषि उद्दालक, जिन्हें आरुणि के नाम से भी जाना जाता है, गौतम गोत्रीय महर्षि थे और उपनिषद युग के मूर्धन्य चिंतकों में से एक थे। उनका उल्लेख महाभारत में धौम्य ऋषि के शिष्य के रूप में भी मिलता है। उनके पुत्र श्वेतकेतु ने भी तत्वज्ञान में उच्च स्थान प्राप्त किया। श्वेतकेतु का उल्लेख छांदोग्य, बृहदारण्यक और कौशीतकि उपनिषद में मिलता है। उन्हें अष्टावक्र के मामा और अपने समय के महान विद्वान के रूप में जाना जाता है।
श्वेतकेतु का गुरुकुल जीवन और विद्या प्राप्ति:
श्वेतकेतु को उनके माता-पिता ने बड़े प्रेम और उत्साह के साथ गुरुकुल भेजा। वहां उन्होंने कठिन परिश्रम और बुद्धिमत्ता से शीघ्र ही ख्याति प्राप्त की। शिक्षा पूरी करने के बाद जब वे घर लौटे, तो उनकी विद्वता की प्रशंसा होने लगी। हालांकि, उनके पिता ऋषि उद्दालक को यह महसूस हुआ कि श्वेतकेतु ने अभी तक विद्या का सही मर्म नहीं समझा है।
विद्या का उद्देश्य और तत्त्वज्ञान की शिक्षा:
ऋषि उद्दालक ने श्वेतकेतु को विद्या का मर्म समझाने के लिए दैनिक जीवन के सरल और रोचक उदाहरणों का सहारा लिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि विद्या केवल ज्ञान प्राप्त करने का माध्यम नहीं है, बल्कि इसके पीछे आत्मज्ञान, विनम्रता और सत्य की खोज का उद्देश्य होना चाहिए।
बरगद के बीज का उदाहरण:
ऋषि उद्दालक ने श्वेतकेतु को एक दिन बरगद का फल लाने को कहा। जब फल तोड़ा गया, तो उन्होंने उसमें से बीज निकालकर उसे तोड़ने को कहा। श्वेतकेतु ने कहा कि बीज इतना सूक्ष्म है कि उसे देख पाना संभव नहीं है। तब ऋषि बोले, “इस सूक्ष्म बीज में ही विशाल बरगद के वृक्ष की संपूर्ण क्षमता विद्यमान है। इसी प्रकार, जिस चेतन तत्व को तुम देख नहीं सकते, उसी से यह संपूर्ण सृष्टि उत्पन्न हुई है।”
नमक और पानी का उदाहरण:
एक अन्य अवसर पर उन्होंने श्वेतकेतु को पानी में नमक घोलकर उसे चखने को कहा। पानी के हर हिस्से में नमक का स्वाद था। उन्होंने समझाया, “जैसे नमक पानी में घुलकर हर स्थान पर व्याप्त है, वैसे ही चेतना हर स्थान पर व्याप्त है। यही चेतना तुम्हारा वास्तविक स्वरूप है। यही ‘तत्त्वमसि’ है – ‘तुम वही हो।'”
मिट्टी और स्वर्ण का ज्ञान:
ऋषि उद्दालक ने यह भी बताया कि जैसे मिट्टी को जानने से उससे बने सभी पात्र समझे जा सकते हैं और स्वर्ण को जानने से सभी आभूषण समझे जा सकते हैं, वैसे ही मूल तत्व ‘सत्’ को जान लेने पर सारा संसार समझा जा सकता है।
महावाक्य: ‘तत्त्वमसि’:
ऋषि उद्दालक ने नौ बार ‘तत्त्वमसि’ (तुम वही हो) महावाक्य का उद्घोष कर श्वेतकेतु को यह सिखाने का प्रयास किया कि आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं। उन्होंने कहा कि यह महान सत्य यही बताता है कि हम जिन सत्य की खोज बाहर करते हैं, वह हमारे भीतर विद्यमान है। यह आत्मज्ञान ही जीवन का सबसे बड़ा रहस्य और शिक्षा का सार है।
शिक्षा और आत्मज्ञान का उद्देश्य:
ऋषि उद्दालक ने अपने पुत्र को यह समझाया कि विद्या का उद्देश्य केवल अहंकार या महत्वाकांक्षा को बढ़ाना नहीं है। विद्या का असली उद्देश्य आत्मा और परमात्मा के एकत्व का बोध कराना है। उन्होंने स्पष्ट किया कि जब तक व्यक्ति अपनी विद्या को आत्मज्ञान और जीवन में संतुलन के लिए नहीं उपयोग करता, तब तक उसकी शिक्षा अधूरी है।
निष्कर्ष:
ऋषि उद्दालक और श्वेतकेतु का यह प्रसंग आज भी हमें यह सिखाता है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल जानकारी एकत्र करना नहीं है, बल्कि अपने भीतर छिपे सत्य को पहचानना है। यह प्रसंग जीवन की सच्चाई को समझने और उसे अपने आचरण में उतारने की प्रेरणा देता है। ‘तत्त्वमसि’ जैसे महावाक्य हमारे भीतर यह बोध कराते हैं कि हम स्वयं ही उस दिव्य सत्य का हिस्सा हैं, जिसे हम सृष्टि में खोजते हैं। इस प्रकार, यह प्रसंग न केवल भारतीय दर्शन का सार प्रस्तुत करता है, बल्कि हमें आत्मा के शाश्वत सत्य से भी जोड़ता है।
(मृदुला दुबे योग शिक्षक और आध्यात्मिक गुरु हैं.)
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