Future of Indian Cinema : बीते दो दशकों या यूँ कह लीजिये कि नयी सहस्राब्दि से हिन्दी सिनेमा (Hindi cinema) ने नयी अंगड़ाई ली है। अब यह कथ्य और शिल्प में ऐसे परिवर्तन लेकर आ रहा है, जो पहले अकल्पित हुआ करते थे।
अब न तो नौंवे दशक तक जारी बारूदी हिंसा में पनपता अविश्वसनीय प्रेम है, न अतिशय भावुकता की चाशनी में लिपटकर अपने ही पिता को खलनायक साबित करता प्रेम है, न स्मगलिंग और काले धंधों को करने वाले प्रतिनायक से लड़ता नायक है। अब है तो नए विषयों से जुड़ा नायकविहीन सिनेमा जो लार्जर दैन लाइफ (Larger than Life) पात्र की जगह ऐसे लोग, जो हमारे आसपास रहते हैं। ऐसे में मुझे लगता है कि खानत्रयी के दिन अब लदने वाले हैं और अब( Future of Indian Cinema) स्टार की जगह वास्तविक अभिनेता लेंगे।
ऐसे में फ़िल्म में निर्देशक और स्वाभाविक अभिनय करने वाले अभिनेता महत्त्वपूर्ण हो जाएंगे और स्टारडम Stardom एवं स्टार संस एंड डॉटर्स युग (Star Sons and Daughters Age) का खात्मा हो जाएगा। हालांकि शाहरुख खान, आमिर खान, जैकी श्रॉफ, महेश भट्ट, करण जौहर, वरुण धवन जैसे लगभग ख़त्म हो चुके या ख़त्म होने की कगार पर आ पहुंचे फिल्मकार इस ट्रेंड (Trend) को पलटने की भरसक कोशिश कर रहे हैं, लेकिन इसे रोका नहीं जा सकता।
हिन्दी सिनेमा का फ्यूज़न ऑफ लैंग्वेजेज (Fusion of Languages) में अन्तरण +Transfer) होना भी तय है। रावण फ़िल्म से निकली यह राह कमोबेश रद्दोबदल के साथ बाहुबली में हिट हुई है। अब इससे भविष्य के भारतीय सिनेमा को भारतीयता के साथ या कुछ हद तक अंतरराष्ट्रीयता के साथ जुड़ते भी हम देख सकेंगे। तीसरी बात यह कि लो बजट (Low Budget )की फिल्मों का दौर जारी रहने वाला है और शॉर्ट फिल्मों या वेबसिनेमा के दौर को भी स्वीकृति मिलते हम जल्द ही देखेंगे। ये सब लक्षण भारतीय खासकर हिन्दी सिनेमा के विस्तार और लोकप्रियता के लिये शुभ हैं।
(प्रो. पुनीत बिसारिया बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी में हिंदी के प्रोफेसर हैं और फिल्मों पर लिखने के लिए जाने जाते हैं। वे द फिल्म फाउंडेशन ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं तथा गोल्डेन पीकॉक इंटरनेशनल फिल्म प्रोडक्शंस एलएलपी के नाम के फिल्म प्रोडक्शन हाउस के सीईओ हैं।)
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