प्रज्ञा (Intelligence) क्या है ?
प्रज्ञा सत्य को सत्य तथा असत्य को असत्य बताती है। प्रज्ञा मन की वह क्षमता है जो सही निष्कर्ष पर पहुंचने में सहायक होती है। प्रत्यक्ष ज्ञान ही प्रज्ञा है ।अपनी अनुभूति वाला ज्ञान ही प्रज्ञा है । ताजा ज्ञान ही प्रज्ञा (Intelligence) है। जैसा है ठीक वैसा देखना ही प्रज्ञा है। यथा कल्पित नहीं। यथा आरोपित नहीं बल्कि यथा भूत देखना ही प्रज्ञा है। एकांत दृष्टिकोण से हम सत्य तक नहीं पहुंच सकते। अनेकांत दृष्टिकोण से देखना ही प्रज्ञा है। अंधभक्त और अंध श्रद्धा से बहुत दूर रहना ही प्रज्ञा है । अर्जुन ने कृष्ण से पूछा? स्थित प्रज्ञ व्यक्ति के क्या लक्षण हैं ?उसकी भाषा व व्यवहार कैसा होता है?
तब कृष्ण गीता में स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि –
दुखों की प्राप्ति होने पर भी जिसके मन में जरा सा भी उद्विग्न नहीं होता और सुखों की प्राप्ति होने पर भी जो व्याकुल नहीं होता। जो राग द्वेष और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है वह मननशील मनुष्य स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है।
बुद्ध ने भी कहा-
“फुट्टस्य लोक धम्मेही चित्तम यस्य न कंपती। असोकम विरजम खेमम एतम मंगलमुत्तम”।। जो सुख या दुख आने पर डावाडोल नहीं होता। जिसका चित्त कांपता नहीं।जो शोक नहीं करता और पूर्ण रूप से शुद्ध रहता है । जो भविष्य के प्रति चिंता नहीं करता। वह स्थित प्रज्ञ है।
जो ठहर गया है ,,रुक गया है, वह स्थित प्रज्ञ है। जो कामना रहित और पूर्ण रूप से शुद्ध हो गया है। कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि अपने मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं पर विजय प्राप्त करे।अपनी आत्मा में संतुष्ट रहने से वह स्थितप्रज्ञ हो जाता है। जो हंस की भांति शब्दों को छान छान कर बोलता है। जिसके पास मौन होने का अभ्यास है। स्थिरप्रज्ञ धैर्यवान होता है। शांति उसका आभूषण है। वह व्यर्थ न सुनता है और न बोलता है।
शील के पांच नियमों का पालन करने से और समाधि का अभ्यास करने से मनुष्य की प्रज्ञा(Intellect) जागृत हो जाती है। अनित्य बोध जागृत हो जाता है और मन की समता पुष्ट हो जाने से मोक्ष प्राप्त होता है।
विनोबा भावेजी ने कहा –
नितांत अशिक्षित और अल्प बुद्धि भी इसी जन्म में प्रज्ञा को प्राप्त कर सकता है।केवल एक चिंगारी ही काफी है।
प्रज्ञावान वह जो नैतिकता के नियमों को धारण कर लेता है जैसे –
किसी को दुख न पहुंचाना, किसी की हानि न करना, दूसरे की वस्तु को अपना न कहना, चोरी, छल न करना, झूठ न बोलना, निंदा, चुगली न करना, काम भोग में आसक्त होकर किसी का चरित्र खराब न करना और कोई भी नशा न करना आदि नैतिकता के सदाचार के नियम हैं जो इन सब विकारों में बिल्कुल नहीं जाता है, वह प्रज्ञावान है। प्रज्ञावान बहुत ही शांत चित्त और एकांतसेवी होता है ।
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