मौन : मौन का अर्थ है शरीर, वाणी और मन तीनों पर संयम बनाए रखना

मौन (Silence) हमारे जीवन में अवश्य ही होना चाहिए। मौन अपने आप में आत्ममंथन है। मौन का थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करते रहना चाहिए। मौन में हम खुद से बातें करते हैं और खुद की सच्चाई के दर्शन कर लेते हैं।

Written By : मृदुला दुबे | Updated on: July 6, 2024 12:07 pm

मौन का अर्थ है शांत हो जाना और बिल्कुल खाली हो जाना। भूतकाल की व्यर्थ बातों को भुला देना। शरीर, वाणी और मन तीनों पर संयम बनाए रखना। शरीर से भी कोई प्रतिक्रिया न देना। वाणी से तो मौन रहना ही है। विचारों को भी स्थगित कर देना अर्थात टाल देना क्योंकि अभी कोई आवश्यकता नहीं है। हर समय शरीर को चलाते रहना, मन को चलाते रहना और वाणी को चलाते रहना कोई आवश्यक नहीं है। चुप रहना सीखें, रुकना सीखें। काया का संयम, वाणी का संयम और विचारों का संयम अवश्य हो।

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शिव जी को मौन अति प्रिय था। शिवजी पहाड़ों पर चले जाते थे और समाधि में बैठकर मौन हो जाते थे। इसी तरह से बुद्ध को भी मौन अति प्रिय था। बुद्ध जब भ्रमण पर निकलते थे तो जिस विहार के भीतर से भिक्षुओ की अगर जरा सी भी आवाज आ रही होती थी तो उस विहार के अंदर प्रवेश नहीं करते थे।

एक बार तथागत बुद्ध भ्रमण के लिए निकले तब उन्होंने देखा कि विहार में एक वृक्ष के नीचे कुछ भिक्षु फिजूल की चर्चा कर रहे हैं। तब तथागत नपे तुले कदमों से उनके पास पहुंचे और उनसे पाली भाषा में कहा —

सन्नी पतितानम वो भिखुवे द्वै करणीयम । धम्मी वा कथा अरियो वा तोड़्ही भावो।।

अर्थात हे भिक्षुओं ! घर बार छोड़ कर साधना में तपने आए हो और अपने तप के बल को बढ़ाने आए हो इसलिए यहां बैठकर तुम्हें दो ही काम करने चाहिए या तो धर्म चर्चा करो अथवा मौन रहो।

गृहस्थ को भी यही करना चाहिए

इसी तरह से जब ग्रहस्थ अपने परिवार में बैठें, मित्रों के साथ बैठें, बच्चों के साथ बैठें तो केवल धर्म चर्चा, अल्पेछ कथा, ज्ञान कथा ,मुक्ति कथा, प्रज्ञा कथा और अनित्य बोध कथा ही करें वरना मौन रहें। फिजूल बातों की जीवन में कोई आवश्यकता नहीं है।

मौन न रह पाने के कारण 

हम बहुत ज्यादा कान लगाकर दूसरों की बातें सुनते हैं और बिना विचारे वही बोलने लगते हैं। ज्यादा बोलने से शब्द सड़ने लगते हैं और बदबू आने लगती है।

जब हम आंखें बंद कर ध्यान में बैठते हैं तो हमारी तृष्णा का सागर प्रकट हो जाता है। मौन का थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करते रहना चाहिए। मौन में हम खुद से बातें करते हैं और खुद की सच्चाई के दर्शन कर लेते हैं । जब हम अपने अहंकार का स्वाद लेना चाहते हैं तब खूब कड़बा बोलते हैं और कड़वा बोलने में ही आनंद मानते हैं। जब तक हम समाधि अथवा भक्ति के द्वारा अंतरमन वाले चित्त को नहीं जानेंगे तब तक खूब गलतियां करेंगे।

अक्सर बोलने के बाद लगता है कि व्यर्थ ही बोला। बोलने की जरूरत तो न थी फिर भी पुरानी आदत की वजह से बोला। भोजन आने पर भोजन में और भोजन बनाने वाले में दोष निकालना, सिनेमा देखते समय अभिनेता, अभिनेत्री और निर्देशक पर टीका टिप्पणी करना, सब्जी वाले से मोल भाव करना, रिक्शा वाले से बहुत झिक- झिक करना बिल्कुल गलत और फिजूल है। हर समय ग्रहों की बातें करना और चीजों के दाम पूछना तथा बताना एक बुरी आदत है। उपरोक्त बहुत सारे कारणों से हम मौन नहीं रह पाते

हमारी वाणी ही तीर्थ है इसे मैला ना करें ।अक्सर हम बहुत ज्यादा बोल देते हैं ।अपने आप से हम पूछें कि क्या यह शब्द बोलना जरूरी है? यदि बिल्कुल भी जरूरी नहीं है तो चुप रहें । बहुत जरूरी हो तभी बोलना चाहिए। ठहर जाएं, यही रुक जाएं। हम अपनी इंद्रियों के वशीभूत होकर अपनी वाणी से खूब कड़वा बोल देते हैं और दूसरों का दिल दुखा देते हैं। हमारी कड़वी वाणी की तरंगे सारी कायनात में उड़ती हैं और कहीं भी आश्रय न मिलने से वापस हमारे पास आकर हमें व्याकुल बनाकर हमारी वाणी को और कड़वा बना देती हैं।

अचानक से कुछ भी बोल पड़ना और बोलते ही जाना, खूब बहस करके अपने अहंकार को बढ़ाना। मूर्ख से न बहस करो, न कोई संवाद करो। सबसे पहले अपने बोलने पर रोक लगाओ। हम अपनी बहुत सारी ऊर्जा बोलने में खर्च कर देते हैं इसलिए मौन हमारे जीवन में अवश्य हो।

सत्य और अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधीजी सोमवार को मौन उपवास रखते थे। गांधीजी ने अपने जीवन में अनेक आंदोलन किए लेकिन किसी भी बात का विरोध उग्र और हिंसक तरीके से न करके संयम और मौन से किया।

गांधीजी ने अपनी ” autobiography my experience with truth” में मौन से जुड़े अनेक फायदे बताए हैं।

आत्म साक्षात्कार के लिए और परमपिता परमेश्वर से मिलने का माध्यम मौन है। संपूर्ण जगत के लिय हितकारी होने के लिय मौन साधो।

शरीर मन और वाणी तीनों से मौन हो जाओ तो भीतर ही भीतर बोलना बंद होगा। सहनशील बनो, वीर बनो, साहसी बनो। केवल प्रज्ञा को जागृत कर लेने पर ही हम बहुत कम बोलेंगे। बहुत सुंदर शब्दों को ही बोलें वरना चुप रहें। हम बिना विचारे ही बोलते चले जाते हैं और खूब बोलते हैं। यही हमारी अशांति का कारण है। जब स्थिति तुम्हारे विपरीत हो तो मौन हो जाओ। मौन हो जाना बोलने से उत्तम है।

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